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ताओ उपनिषद भाग २
तो जो लोग कहते हैं कि समानता क्यों नहीं है जगत में, अगर परमात्मा है? क्योंकि मार्क्स ने परमात्मा को इनकार इसीलिए किया कि जगत में इतनी असमानता क्यों है? परमात्मा नहीं हो सकता! और मैं कहता हूं कि परमात्मा के होने का यह भी एक सबूत है कि इतनी असमानता है, क्योंकि इतनी स्वतंत्रता है। .
अक्सर लोग स्वतंत्रता-समानता का नारा एक साथ लगाते हैं। बल्कि एक तीसरा नारा और लगाते हैं, जो और भी हैरानी का है। फ्रेंच-क्रांति में जो नारा था, वह थाः जस्टिस, फ्रीडम, इक्वालिटी। यह बिलकुल पागलपन का नारा है। न्याय, स्वतंत्रता, समानता। पर खयाल में नहीं आता, क्योंकि हम शब्दों के मोहजाल में पड़ जाते हैं, कभी उनके भीतर नहीं उतर कर देखते। अगर समानता होगी, तो स्वतंत्रता नहीं बचेगी। अगर स्वतंत्रता होगी, तो समानता नहीं बचेगी। और अगर न्याय चाहिए, तो दो में से एक को चुनना पड़ेगा। अगर न्याय चाहिए, तो दोनों को नहीं चुना जा सकता। और जो स्वतंत्रता को चुनेगा, तो न्याय दूसरे ढंग का होगा। और जो समानता को चुनेगा, तो न्याय दूसरे ढंग का होगा। अगर समानता को चुनते हैं, तो असमान होने की कोशिश ही अन्याय होगी। और अगर स्वतंत्रता को
चुनते हैं, तो असमान होने की सुविधा ही न्याय होगी। अगर समानता को चुनते हैं, तो प्रत्येक व्यक्ति को बांध कर रखना ही न्याय होगा। अगर स्वतंत्रता को चुनते हैं, तो प्रत्येक व्यक्ति को असमान हो जाने की सुविधा, व्यवस्था, मार्ग देना ही न्याय होगा। कोई किसी के असमान होने में बाधा पड़े, तो अन्याय है। ये तीनों बड़ी उलटी बातें हैं। और स्वतंत्रता और समानता तो भारी सवाल है।
इसलिए मार्क्स ने ईश्वर को इनकार कर दिया। उसे ईश्वर से ऐसे कोई ज्यादा प्रयोजन नहीं था। क्योंकि ईश्वर से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन एक बात उसे समझ में आई और वह यह कि अगर ईश्वर है, तो स्वतंत्रता नष्ट नहीं की जा सकती। अगर ईश्वर है, तो यह जो असमानता है, यह जारी रहेगी। तो अगर हमें असमानता नष्ट करनी हो, स्वतंत्रता नष्ट करनी हो, तो स्वतंत्रता का जो केंद्रीय सिद्धांत है ईश्वर, उसे हमें विदा कर देना चाहिए।
इसलिए कम्युनिज्म अकारण अनीश्वरवादी नहीं है। उसका कारण है, और गहरा कारण है। इसलिए कोई आदमी कम्युनिस्ट और आस्तिक साथ-साथ हो, तो असंभव है। यह नहीं हो सकता। कम्युनिस्ट और आस्तिक साथ-साथ हो, तो असंभव है। यह नहीं हो सकता। नास्तिक होना अनिवार्य है। क्योंकि परमात्मा का अर्थ ही यह होता है कि नियंत्रण नहीं। यह जो लाओत्से कह रहा है, यह तो मार्क्स से ढाई हजार साल पहले कहा है। नियंत्रण नहीं, तो ही स्वतंत्रता हो सकती है। और स्वतंत्रता हो, तो ही विकास की संभावना है।
लेकिन तब दायित्व हमारे ऊपर है। और दायित्व से अगर हम बचना चाहते हैं, तो हम कोई न कोई गुलामी तत्काल चुन लेंगे। अगर परमात्मा न मिले हमें गुलाम बनाने को, गुरु न मिलें, तो हम राज्य को, स्टेट को मालिक बना लेंगे। अंतर नहीं पड़ेगा। कोई चाहिए जो हमारे गले में लगाम डाल दे और हमें जानवरों की तरह चलाए। हम खुद नहीं चल सकते; कोई हमें घसीटे, कोई हमें धक्का दे। तब हम ज्यादा आश्वस्त होते हैं। तब हमें लगता है कि अब ठीक जा रहे हैं। अब भूल का कोई कारण नहीं है।
लेकिन ध्यान रहे, यही बड़ी से बड़ी भूल है। दूसरी और कोई भूल हो नहीं सकती। बड़ी से बड़ी भूल एक है; और वह अपनी स्वतंत्रता को खोकर हम कुछ भी करें, तो भूल हो जाएगी, पाप हो जाएगा, अपराध हो जाएगा।
लाओत्से कहता है, 'इसे ही ताओ की रहस्यमयी विशेषता कहते हैं। दिस इज़ दि मोस्ट मिस्टीरियस क्वालिटी ऑफ दि ताओ।'
यही उसकी सबसे रहस्यपूर्ण विशेषता है। है भी, होना उसका है, और फिर वह किसी की परतंत्रता नहीं है। इसे थोड़ा सोचें। अगर परमात्मा यहां खड़ा हो जाए अभी, इसी वक्त, तो आप स्वतंत्र नहीं रह जाएंगे। कुछ करे नहीं, सिर्फ खड़ा हो जाए, सिर्फ परमात्मा यहां मौजूद हो जाए, तो आप सब परतंत्र हो जाएंगे तत्काल। क्यों? क्योंकि
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