________________
ताओ की अनुपस्थित उपस्थिति
लेकिन स्वतंत्रता से ही हम बचना चाहते हैं। सच में कभी सोचें इसको एक क्षण को, कोई दुख न हो, तो परमात्मा का खयाल भी कहां उठेगा? क्यों उठेगा? परमात्मा तो ठीक वैसे ही है, जैसे बीमारी में दवाई का खयाल उठता है। जब बीमारी ही नहीं है, तो कोई पागल है जिसको दवाई का खयाल उठे? परमात्मा एक दवाई है, एक मेडिसिनल उपयोग है उसका, औषधि की भांति। दुख होता है, परमात्मा की औषधि ले लेते हैं। दुख नहीं होता, औषधि की बोतल को कचरे में फेंक देते हैं। दुख में हम अपना दायित्व किसी के कंधे पर रखना चाहते हैं, सिर्फ इसलिए।
लेकिन परमात्मा के कंधे पर कोई दायित्व नहीं रखा जा सकता, क्योंकि परमात्मा आपको परतंत्र नहीं बनाता है। आप स्वतंत्र हैं। और परमात्मा से ज्यादा स्वतंत्रता का प्रेमी होना बहुत मुश्किल है। स्वतंत्रता इतनी गहन है, इसीलिए इतनी असमानता है।
समाजवादी, साम्यवादी भी परमात्मा के संबंध में जो आलोचना करता है, वह यही करता है कि यदि परमात्मा है तो इतनी असमानता क्यों है? व्हाई दिस इनइक्वालिटी? और उसका तर्क, जिन्होंने कभी सोचने-समझने में मेहनत नहीं की, उन्हें ठीक भी लगता है कि अगर परमात्मा है, तो इतना वैषम्य क्यों है? लोग समान होने चाहिए!
लेकिन ध्यान रहे, स्वतंत्रता और समानता विपरीत स्थितियां हैं। अगर समानता चाहते हैं, तो स्वतंत्रता नहीं रह सकती; अगर स्वतंत्रता चाहते हैं, तो समानता नहीं रह सकती। सभी को समान बनाया जा सकता है, लेकिन तब परतंत्र बनाना पड़ेगा। जेलखाने के अतिरिक्त कहीं भी समानता नहीं हो सकती। और जेलखाने में भी अगर थोड़ी-बहुत सुविधा होगी, तो असमानता पैदा हो जाएगी। सख्त! इतनी सख्ती होनी चाहिए कि असमान होने का जरा भी मौका न मिले किसी को, तो ही समानता हो सकती है। पूर्ण समानता पूर्ण परतंत्रता में ही संभव है। इसलिए अगर कम्युनिज्म कभी दुनिया में पूरी तरह सफल हो जाए, तो पूरी दुनिया एक बड़ा कारागृह हो जाएगी। और अगर पूरी तरह सफल न हो, तो कम्युनिज्म कभी हो नहीं सकता। कारागृह न हो, तो साम्यवाद नहीं हो सकता।
स्वतंत्रता का अर्थ ही है यह कि जो जैसा होना चाहे, होने के लिए स्वतंत्र है। फिर असमानता हो ही जाएगी। फिर असमानता अनिवार्य है। और अगर समानता रखनी हो, तो फिर ठोंक-पीट कर एक-एक आदमी को वहीं रखना पड़ेगा, जहां वह समान रहे।
एक और मजे की बात है। जितनी ज्यादा समानता होगी, उतना चेतना का तल नीचा हो जाएगा। जितनी ज्यादा समानता होगी, उतना चेतना का तल नीचा हो जाएगा।
इसमें खूबियां हैं। समझें एक तीस बच्चों का क्लास है। उसमें जो तीसवें नंबर का बच्चा है, उसको जबर्दस्ती पहले नंबर का नहीं बनाया जा सकता, लेकिन पहले नंबर वाले को जबर्दस्ती तीसवें नंबर का बनाया जा सकता है। तीसवें नंबर के लड़के को जबर्दस्ती पहले नंबर का नहीं बनाया जा सकता, लेकिन पहले नंबर के बच्चे को पहले नंबर तक पहुंचने से रोका जा सकता है और तीसवें की कतार में खड़ा रखा जा सकता है।
अगर वस्तुतः समानता चाहिए, तो निम्नतम तल पर होगी। क्योंकि निम्नतम को आप खींच कर श्रेष्ठ नहीं बना सकते, लेकिन श्रेष्ठ को आप रोक कर निम्न रख सकते हैं। यह आसान नहीं है कि अस्पताल में जो बीमार पड़े हैं, उन सबको स्वस्थ की, श्रेष्ठतम स्वस्थ की कतार में लाया जा सके। लेकिन यह बिलकुल आसान है कि जो स्वस्थ हैं, उनको अस्पताल की खाटों पर लिटाया जा सके। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। पीछे खींचना सदा आसान है, आगे ले जाना सदा कठिन है। इसलिए जितनी बड़ी समानता होगी, उतना नीचे का तल होगा; जितनी बड़ी स्वतंत्रता होगी, उतनी चेतनाएं आकाश को छू सकेंगी। लेकिन स्वतंत्रता का अर्थ ही यह होता है कि जो छूना चाहेगा, वह छुएगा; जो नहीं छूना चाहेगा, वह नहीं छुएगा। जो नहीं उठना चाहेगा, वह बैठा रहेगा अपनी जगह पर। जो चलना चाहेगा, वह दूर की यात्रा पर भी पहुंच जा सकता है।