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ताओ उपनिषद भाग २
इसलिए बड़े मजे की बात है, जब आदमी सुख में होता है, तो परमात्मा का स्मरण नहीं करता; जब दुख में होता है, तभी करता है। क्योंकि दुख में ही जिम्मेवारी दूसरे पर टालने का सवाल उठता है, सुख में तो हम खुद ही ले सकते हैं। जब सुख आता है, तो हम खुद ही जिम्मेवार होते हैं, हमारे कारण ही आता है। और जब दुख आता है, तब दूसरे के कारण आता है। तब हम परमात्मा की तरफ अंगुली उठाना चाहते हैं कि तेरे रहते और हम ऐसा दुख पा रहे हैं! तेरा रहना ही फिजूल है! तेरा होना बेकार है! तू अगर है, तो सबूत दे कि हमारे दुख को मिटा दे।
एक आदमी मेरे पास आया था, वह कह रहा था कि मुझे परमात्मा पर पक्का भरोसा आ गया; क्योंकि मैंने कहा कि पंद्रह दिन के भीतर अगर मेरे लड़के की नौकरी नहीं लगती है, तो फिर कभी तुझ पर भरोसा नहीं कर सकुंगा; और नौकरी लग गई। मैंने कहा, परमात्मा ने तुमसे बड़ा कच्चा सौदा किया है, किसी भी दिन टूटेगा। मैंने कहा, अब दुबारा ऐसी शर्त कभी मत रखना, नहीं तो बड़ी मुश्किल में पड़ोगे। उसने कहा, क्या कहते हैं आप! अब तो मुझे पक्का भरोसा आ गया कि परमात्मा है। मैंने कहा, यही भरोसा तुझे दिक्कत में और तेरे परमात्मा को भी दिक्कत में डालेगा। क्योंकि यह सिर्फ संयोग की बात है कि तेरे लड़के की नौकरी लग गई। इस अहंकार में मत पड़ कि तेरे लड़के की नौकरी लगाने के लिए परमात्मा को उत्सुकता लेनी पड़ेगी। इस अहंकार में मत पड़। नहीं तो तू ज्यादा महत्वपूर्ण, तेरा लड़का ज्यादा महत्वपूर्ण, तेरे लड़के की नौकरी ज्यादा महत्वपूर्ण। परमात्मा तो एक सेवक की हैसियत का हो जाता है। और अब दुबारा ऐसी सेवा मत लेना, क्योंकि संयोग सदा नहीं लगेगा।
दो महीने बाद वह आदमी आया और कहने लगा, आपने कैसा वचन बोल दिया, सब गड़बड़ हो गया है। मैंने कहा, मैंने कोई वचन नहीं बोला। उसने कहा कि क्या! कैसी आपने बात कह दी! उस दिन से तीन-चार दफे कोशिश कर चुका, हर बार असफलता हाथ लग रही है। परमात्मा ने मुझसे पीठ मोड़ ली है।
न परमात्मा पीठ मोड़ रहा है, न आपकी तरफ चेहरा किए हुए खड़ा है। न उसकी कोई पीठ है, न उसका कोई चेहरा है। न आपकी आवाज, न आपके निवेदन, न आपकी प्रार्थनाएं, न आपके आग्रहों का कोई अर्थ है। आपका मूल्य है। लेकिन आपका मूल्य उसी अर्थ में है, जिस अर्थ में आप अपनी स्वतंत्रता का उपयोग कर पाते हैं। सृजनात्मक। हाऊ टु यूज दि फ्रीडम क्रिएटिवली, बस वही आपका मूल्य है।
साधना का यही अर्थ होता है: स्वतंत्रता का सृजनात्मक उपयोग। साधना का यही अर्थ होता है : स्वतंत्रता का सृजनात्मक उपयोग। संसारी आदमी का अर्थ होता है : स्वतंत्रता का विध्वंसात्मक उपयोग। अपनी ही हत्या किए चला जाता है। अपनी ही स्वतंत्रता को अपने ही प्राणों के लिए बाधा बनाए चला जाता है। आखिर में खुद की स्वतंत्रता खुद की सूली बन जाती है।
तो दुख में हम याद करते हैं, क्योंकि दुख में हम जिम्मेवारी डालना चाहते हैं। सुख में हम बिलकुल याद नहीं करते। इसलिए रसेल ने लिखा है कि मैं उस दिन की प्रतीक्षा करूंगा कि परमात्मा सच में है या नहीं और उस दिन की प्रतीक्षा करूंगा कि दुनिया में कोई आस्तिक है या नहीं, जिस दिन दुनिया में कोई दुख न होगा, उस दिन पता चलेगा।
रसेल ठीक कह रहा है। जहां तक हमारी आस्तिकता का संबंध है, हमारी आस्तिकता वर्षा में कच्चे रंगों की तरह बह जाएगी। अगर दुनिया में कोई दुख न हो-थोड़ा सोचें एक क्षण को-दुनिया में कोई दुख न हो, क्या कोई भी आदमी परमात्मा को याद करेगा? क्या मंदिर की घंटियां बजेंगी और चर्च के दीए जलेंगे? क्या नमाज या अजान सुबह उठती हुई मस्जिद से सुनाई पड़ेगी?
___दुख! ये सब मंदिर और मस्जिद, अजान और प्रार्थना और पूजा, ये सब यज्ञ-हवन, यह सब हमारा दुख बोल रहा है। और मजा यह है कि न मस्जिद मिटा सकती है दुख को, न मंदिर, न पूजा, न पाठ। दुख बनाते हम हैं, मिटा हम सकते हैं। दुख हमारी स्वतंत्रता का दुरुपयोग है।
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