________________
उत्प्रय-मुक्त जीवन, आमंत्रण भरा भाव व बमबीय मेधा
लाओत्से से कोई पूछता सवाल, तो कभी-कभी तो लाओत्से घंटों चुप रह जाता था। पूछने वाला सवाल भूल जाता। तब लाओत्से फिर से पूछता, क्या पूछा था? वह आदमी कहता, अब तो मैं भी भूल गया, अब मैं फिर कभी आऊंगा। वह आदमी कहता कि लेकिन जब मैंने पूछा था, तब आपने जवाब नहीं दिया! तो लाओत्से कहता, मुझे जवाब पता होता, तो मैं दे देता। मैं रुका, ठहरा, मैंने प्रतीक्षा की कि शायद जवाब आ जाए, शायद जवाब आ जाए। इसलिए तुमसे फिर पूछता हूं कि तुम्हारा सवाल क्या था?
लाओत्से जिंदगी भर कुछ भी नहीं लिखा। यह छोटी सी किताब आखिरी किताब है-आखिरी और पहली। उसने कोई और किताब लिखी नहीं। जिंदगी भर शिष्य उसके कहते रहे, कुछ लिखो। लाओत्से कहता, लेकिन मैं जानता कहां हूं? और अज्ञान तुम्हारे हाथ में दे जाऊं, तो खतरनाक है। लेकिन जितना लाओत्से इनकार करता गया, इनकार करता गया, उतना लाखों लोग उस पर दबाव डालने लगे कि कुछ लिख जाओ। फिर भी लाओत्से एक रात निकल भागा बिना कुछ लिखे। वह तो सीमा पर पकड़ लिया गया मुल्क की। मुल्क छोड़ते वक्त चुंगी नाके पर पकड़ लिया गया। और चुंगी का जो आफिसर था, उसने कहा, बाहर न जाने दूंगा, जब तक कुछ लिख कर न दे दो। इस मजबूरी में लिखी है यह किताब। उसने कहा कि तीन दिन रुक जाओ यहां, अन्यथा सीमा के पार नहीं निकलने दूंगा। तो जो तुम जानते हो, वह लिख जाओ।
लाओत्से बड़ी मुश्किल में पड़ा। जिंदगी भर जो चुप रहा, चुप्पी को जिसने साधन बनाया, ज्ञान की जिसने कभी घोषणा न की, उसको लिखने की मजबूरी खड़ी हो गई; क्योंकि वह निकलने देने की बात थी। उसे जाना था मुल्क के बाहर। उसे जाना था पर्वतीय एकौत में लीन होने को सदा को। और यह आदमी जाने नहीं देगा। तो तीन रात सोया नहीं, तीन रात में यह किताब, इसको अगर किताब कह सकें तो, उसने लिखी। लेकिन पहली बात यही लिखी कि जो जाना जाता है, वह कहा नहीं जा सकता; और जिसे शब्द कहते हैं, वह सत्य नहीं है। यह उसने पहले लिखा। फिर पीछे किताब शुरू की।
तो वह कहता है कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जो जान ले, वह न जानने जैसे भाव में प्रतिष्ठित हो जाए?
हो नहीं सकता, ऐसा होता ही है। ऐसा होता ही है। लेकिन इस बात को भी एक डॉगमेटिक एसर्शन, एक रूढ़ वक्तव्य न बन जाए, इसलिए झिझकते हुए लाओत्से प्रश्न के रूप में कहता है। वह कहता है, जब उसकी मेधा सभी दिशाओं की ओर अभिमुख हो, जब वह सब कुछ जानने की स्थिति में खड़ा हो जाए, जब सब द्वार उसके लिए खुल गए हों और सभी आयाम से प्रकाश उस पर पड़ता हो, तो क्या वह ज्ञानरहित होने जैसा नहीं दिख सकता? प्रश्न में इसलिए रखता है, ताकि एक झिझक, जो कि परम ज्ञानी का लक्षण है। झिझक परम ज्ञानी का लक्षण है, बेझिझक अज्ञानी वक्तव्य देते हैं। झिझक ज्ञानी का लक्षण है।
महावीर से कोई पूछता था, तो वे स्यात लगाए बिना वक्तव्य नहीं देते थे। कोई उनसे पूछता, ईश्वर है? तो महावीर कहते, स्यात। परहेप्स, शायद है। कभी कहते, स्यात नहीं है। कभी कहते, शायद दोनों ही बातें सच हैं।
परम ज्ञानी गणित जैसे वक्तव्य नहीं दे सकता कि दो और दो चार होते हैं। क्योंकि जीवन इतनी बड़ी पहेली है, इतना बड़ा रहस्य है कि जिसने बहुत साफ-साफ वक्तव्य दिए, वह ठीक से समझ ले कि बहुत कुछ उसे छोड़ देना पड़ेगा। वक्तव्य को साफ बनाने के लिए बहुत कुछ छोड़ देना पड़ेगा। वह भी जीवंत था। और जो हमने छोड़ दिया है, वह आज नहीं कल बदला लेगा।
इसलिए लाओत्से ऐसा नहीं कहता, क्योंकि वह कहना भी बहुत अथारिटेटिव, बहुत आप्त हो जाता। लाओत्से ऐसा भी कह सकता था-इस फर्क को समझें-लाओत्से यह भी कह सकता था कि जो ज्ञानी है, उसे अज्ञानी जैसा व्यवहार करना चाहिए। बात यही होती, लेकिन यह वक्तव्य अज्ञानपूर्ण हो जाता। यह वक्तव्य अज्ञानपूर्ण हो जाता।
53