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ताओ उपनिषद भाग २
इस फर्क को समझ लें। ईश्वर को खोजने का जो ज्ञानी का ढंग है, वह पुरुष का ढंग है। ईश्वर को खोजने का जो भक्त का ढंग है, वह स्त्री का ढंग है। इसलिए भक्त अगर ऐसा कहने लगे तो वह प्रतीक भाषा थी कि कृष्ण के सिवाय कोई पुरुष नहीं। वह सिर्फ प्रतीक भाषा थी, क्योंकि बाकी सब खोजने वाले हैं, तो उन्हें स्त्री होना ही चाहिए। इसका कोई और मतलब नहीं है, इसका यह मतलब नहीं है कि बाकी सब स्त्रियां हैं।
कुछ नासमझ वैसा भी समझे। तो बंगाल में एक संप्रदाय है, सखी संप्रदाय। तो सखी संप्रदाय को मानने वाला पुरुष भी कृष्ण की मूर्ति रात छाती से लगा कर बिस्तर में सोता है, सखी बन कर।
अब मैं मानता हूं कि यह भला कितना ही सखी बन रहा हो, लेकिन एक बात पक्की है कि कृष्ण की मूर्ति यही उठा कर अपनी छाती से लगाता है। और यही रात उसको छाती से दबा कर सोता होगा; कृष्ण की मूर्ति इसकी छाती को नहीं दबाती होगी। यह भला अपने को सखी कह रहा हो, लेकिन इसका सारा ढंग पुरुष का है। यही कर रहा है कुछ, कृष्ण बिलकुल इसमें अपराधी नहीं हैं, इसमें बिलकुल निर्दोष हैं। अगर कभी मुकदमा चले, तो यही फंसेगा। असल में, पुरुष छोड़ नहीं सकता अपने को, कुछ करके रहेगा। किए बिना उसे चैन नहीं है।
लाओत्से कहता है, छोड़ दो, लेट गो। विश्राम में हो जाओ, चीजों को घटित होने दो। घटाने की इतनी आतुरता मत करो। इतनी जल्दबाजी और इतना आग्रहपूर्ण रुख मत रखो कि ऐसा ही हो। जो हो जाए, उसे स्वीकार करने की क्षमता रखो। और द्वार खुले रखो, और राजी रहो, जो हो जाए। और इस जगत से, अस्तित्व से शत्रुता मत लो। एक मैत्री का भाव रखो, तो जगत जो भी करवाए, वह ठीक होगा। ऐसी एक छिपी हुई सदभावना, ऐसी एक निकटता अस्तित्व के साथ कि अस्तित्व जो भी करेगा, वह ठीक होगा। इस भाव के साथ जीने का नाम स्त्रैण ढंग है।
और तीसरा सूत्र है, "जब उसकी मेधा सभी दिशाओं की ओर अभिमुख हो, तो क्या वह ज्ञानरहित होने जैसा नहीं दिख सकता?'
और जब ज्ञान परिपूर्ण हो, तब भी क्या ज्ञानी होने का दंभ बचाने की जरूरत है? और जब मेधा अपनी पूरी ज्योति में जलती हो, तब भी क्या बताना पड़ेगा कि मैं ज्ञानी हूं?
असल में, जब तक कोई कहता रहता है मैं ज्ञानी हूं, तब तक जानना कि अज्ञान शेष है। क्योंकि ज्ञान कैसे दावा करेगा? ज्ञान दावेदार नहीं होता, सब दावे अज्ञान के हैं। ज्ञान कैसे कहेगा कि मैंने जान लिया? क्योंकि सच तो यह है कि जैसे ही कोई जानता है, उसे यह भी पता चल जाता है कि जानना असंभव है। जैसे ही कोई जानता है, उसे यह भी पता चल जाता है कि कितना ही जानो, जानने को सदा शेष है। जैसे ही कोई जानता है, उसे पता चल जाता है कि मैंने अपने हाथ में जो चुल्लू भर पानी ले लिया है, वह उस सागर का हिस्सा है जो अनंत है और मेरी मुट्ठी में समाने वाला नहीं है। सच तो यह है कि जानता वही है, जिसकी मुट्ठी ही खो जाती है। जानता वही है, जिसकी पकड़ ही खो जाती है। जो सागर में ऐसे लीन हो जाता है, जैसे कोई नमक की डली को डाल दे और नमक एक हो जाए, सागर के साथ एक हो जाए। बचता कहां है जानने वाला!
तो जिसे जानने की यात्रा पर निकलना है, उसे मिटने की यात्रा पर निकलने की तैयारी चाहिए। उद्देश्य जहां है, वहां मिटना नहीं हो सकता। वहां तो अहंकार मजबूत होता है। लेकिन जहां कोई उद्देश्य नहीं है, वहां अहंकार के बचने का कोई कारण नहीं। मैं अभी मिट गया, अगर मुझे कल की कोई चिंता नहीं है। अगर आने वाले क्षण में क्या होगा इसकी मेरी कोई योजना नहीं है, अगर मैंने आने वाले क्षण के साथ आग्रह नहीं रखा है कि यही होगा तो ही मैं सुख पाऊंगा अन्यथा दुखी हो जाऊंगा, तो मैं मिट गया, अभी मिट गया। क्षण आएगा, मेरा अस्तित्व भी होगा, लेकिन मेरा मैं नहीं होगा। मैं हमारी आग्रहपूर्ण योजनाओं का जोड़ है। तो जितना हमारा भविष्य से आग्रह है, उतना हमारा मैं है।
लाओत्से कहता है कि क्या जान लेने के बाद भी ऐसा नहीं जीया जा सकता कि जैसे नहीं जानता हूं?
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