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उद्देश्य-मुक्त जीवन, आमंत्रण भरा भाव व बमबीय मेधा
युद्ध करो, संघर्ष करो। जगत एक शत्रु है। और अस्तित्व और हमारे बीच कोई मैत्री नहीं है। निमंत्रण तो मित्र को देना पड़ता है, प्रेमी को। आक्रमण शत्रु पर करना होता है।
स्त्रैण चित्त का अर्थ लाओत्से लेता है, वह जो ग्राहकता की क्षमता है। · पुरुष और स्त्री की जो यौन-व्यवस्था है, उसमें बुनियादी फर्क है। पुरुष की यौन-व्यवस्था आक्रमण की है। इसलिए कोई स्त्री बलात्कार नहीं कर सकती। उसकी यौन-व्यवस्था से बलात्कार घटित नहीं हो सकता। अगर स्त्री को बलात्कार भी करना हो, तो पुरुष की सहायता की जरूरत है। स्त्री बलात्कार करवा सकती है, कर नहीं सकती। क्योंकि पुरुष अगर सहयोग न दे, तो स्त्री बलात्कार कैसे करे? लेकिन पुरुष बलात्कार कर सकता है, स्त्री के सहयोग की अनिवार्यता नहीं है। बल्कि कुछ लोगों को बलात्कार के सिवाय प्रेम में रस ही नहीं आता, क्योंकि बलात्कार में ही आक्रमण का पूरा रस मिलता है।
___ इसलिए जो स्त्री उपलब्ध हो जाती है, पुरुष को उसमें रस नहीं आता। क्योंकि जीत का काम ही समाप्त हो गया। जो स्त्री उपलब्ध नहीं होती, उसमें उसे रस आता है। तो जितनी अनुपलब्ध स्त्री हो, पुरुष के लिए उतना रस का कारण होती है। जितनी दूर हो, उतना रस का कारण होती है। क्योंकि उसे पाना मुश्किल है, तो पाने के लिए संघर्ष और युद्ध और आक्रमण और तैयारी करनी पड़ती है। उसमें उसके पुरुष चित्त को, आक्रामक चित्त को रस मिलता है।
स्त्री काम-व्यवस्था से भी आक्रमण नहीं कर सकती और उसका चित्त भी आक्रामक नहीं है। वह ग्राहक है, रिसेप्टिव है। वह सिर्फ स्वीकार करती है, वह सिर्फ अंगीकार करती है। उसके अंगीकार में ही जगत के प्रति, जीवन के प्रति एक सदभाव है।
लाओत्से के हिसाब से अस्तित्व से हमारे दो तरह के संबंध हो सकते हैं: एक संबंध आक्रमण का; और एक संबंध मैत्री का, प्रेम का, निमंत्रण का। तो वह कहता है, एक स्त्रैण पक्षी की तरह, एक स्त्रैण चित्त की तरह, क्या यह नहीं हो सकता कि तुम अपने स्वर्ग के दरवाजे को भी इस तरह ठोंको-पीटो मत, धकाओ मत।
स्वामी राम कहा करते थे कि दरवाजे दो तरह से हो सकते हैं। एक तो दरवाजा जिसमें पुश लिखा रहता है-धक्का दो! और एक दरवाजा जिस पर पुल लिखा रहता है-अपनी तरफ खींचो!
स्त्रैण चित्त का जो दरवाजा है, उस पर है पुल-खींचो। स्त्री सिर्फ खींचती है। जाती नहीं, सिर्फ बुलाती है। पुरुष का चित्त जो है, वह धक्के देता है। यह जो धक्के देने की चेष्टा है, क्या स्वर्ग के दरवाजे खोलने में भी तुम आक्रामक की तरह प्रवेश करोगे? क्या एक नेपोलियन और एक सिकंदर और एक हिटलर की तरह स्वर्ग के दरवाजे पर भी पहुंच जाओगे? क्या वहां भी तुम हमला करोगे? परमात्मा पर भी हमला करोगे?
पुरुष परमात्मा पर भी हमला करने ही निकलता है। जब कोई पुरुष परमात्मा को खोजने निकलता है, तो उसका भाव ऐसा होता है कि देखें, कहां है? खोज कर रहेंगे! वह मीरा की तरह नाचता हुआ नहीं जाता परमात्मा की तरफ, एग्रेसिव होता है। उसकी सारी चेष्टा ऐसी होती है कि खोज कर रहेंगे। शायद इसीलिए पुरुष...। पुरुष से मतलब पुरुष ही नहीं, क्योंकि पुरुष भी मीरा की तरह जा सकते हैं, एक कबीर नाचता हुआ जा सकता है। और मीरा भी चाहे तो पुरुष की तरह जा सकती है। ये सिर्फ प्रतीक हैं, खयाल रखना। पुरुष से मतलब पुरुष का ही नहीं, स्त्री से मतलब स्त्री का ही नहीं। स्त्री पुरुष की तरह व्यवहार कर सकती है, पुरुष स्त्री की तरह व्यवहार कर सकता है।।
स्त्रैण चित्त खोजने भी जाता है, तो निमंत्रण की तरह। और अगर स्त्रैण चित्त को न मिले, तो वह यह नहीं कहेगा कि तू कसूरवार है, कहां छिपा है कि मुझे मिलता नहीं? स्त्रैण चित्त इतना ही कहेगा कि जरूर मेरे निमंत्रण में कमी रह गई और मेरी प्रतीक्षा की पुकार पूरी नहीं थी। तू तो यहीं कहीं है। लेकिन मैं अपने द्वार नहीं खोल पाया। मेरे द्वार अधखुले या बंद रह गए।