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ताओ उपनिषद भाग २
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जमीन में तिजोरी भरने को धन कहें कि पुण्य को धन कहें, यह परिभाषा की बात है। लेकिन समय धन है। और जिसने गंवाया, वह बेकार गया। कमाओ, समय को नियोजित करो और कुछ कमाओ, किसी उद्देश्य पर समर्पित करो, तो ही तुम धनी हो पाओगे। चाहे तिजोरी वाले धनी, चाहे पुण्य वाले धनी, लेकिन धनी तुम तब ही हो पाओगे, जब समय को तुम धन में बदल लो।
लाओत्से कहता है, समय को बदलना ही मत धन में समय जीवन है, तुम उसे जी लो। तुम उसमें डूब जाओ। तुम उसमें नहा लो। तुम उससे कुछ आगे पाने की चेष्टा मत करो। अभी, अभी इसी समय तुम उसमें इतने लीन हो जाओ कि तुम और तुम्हारे समय में कोई फासला न रह जाए। समय धन नहीं है, समय जीवन है। और समय से कुछ भी नहीं कमाया जा सकता, क्योंकि समय स्वयं ही अपना लक्ष्य है। जो समय से कमाने जाएगा, वह दरिद्र भिखारी की तरह मरेगा। जो समय को जीएगा अभी और यहीं, वह सम्राट हो जाएगा। सम्राट हो जाएगा इसलिए कि हर क्षण जीकर जीवन की संपदा, जीवन का रस, जीवन की अनुभूति प्रगाढ़ हो जाएगी। वह जीवंत से जीवंत होता चला जाएगा, उसका जीवन निखरता चला जाएगा। हर क्षण समय का उसके जीवन की तलवार पर और धार रख जाएगा। और उसके जीवन की सुरा और सघन, और गहन हो जाएगी। और उसके जीवन का नृत्य और और कुशल, आनंदपूर्ण हो जाएगा। लेकिन यह हो जाएगा यहीं और अभी - एक ।
और दूसरा, लाओत्से कहता है कि क्या वह स्वर्ग के अपने दरवाजे को खोलने और बंद करने की प्रक्रिया में एक स्त्रैण पक्षी की तरह काम नहीं कर सकता ?
इसे थोड़ा समझना पड़े। एक तो पुरुष चित्त के काम करने का ढंग है और एक स्त्रैण चित्त के काम करने का ढंग है। लाओत्से स्त्रैण चित्त के पक्ष में है। एक पुरुष चित्त के काम करने का ढंग है; पुरुष चित्त के काम करने का ढंग है आक्रमण, एग्रेशन । पुरुष से मतलब नहीं है, यह सिर्फ प्रतीक है। आक्रमण की जो व्यवस्था है, किसी चीज को पाना हो तो एक ढंग है: आक्रमण करो और पा लो। इसे लाओत्से कहता है, यह पुरुष चित्त का ढंग है। एक दूसरा है: आक्रमण मत करो, सिर्फ प्रतीक्षा करो और निमंत्रण दो । आक्रमण नहीं, निमंत्रण। एग्रेशन नहीं, इनवीटेशन । इसें लाओत्से स्त्रैण चित्त की व्यवस्था कहता है ।
अगर हम उद्देश्यपूर्ण जीवन जीते हैं, तो हम पुरुष चित्त की तरह जीएंगे। क्योंकि जिसे उद्देश्य को पूरा करना है, उसे प्रतिपल आक्रमण करना पड़ेगा। रोज उसे आक्रमण करना पड़ेगा कल पर, क्योंकि उद्देश्य कल है। और आक्रमण की तैयारी करनी है। तो वह रोज आक्रमण की तैयारी और आक्रमण करता रहेगा। हमलावर होगा वह। जिंदगी के साथ उसका संबंध दोस्ती का नहीं, दुश्मनी का होगा। जैसा पश्चिम में लोग कहते हैं कि प्रकृति पर विजय पानी है ! उसकी भाषा विजय की होगी। जो भी चीज है, उसको जीतना है।
लाओत्से कहता है, यह जीतने वाला चित्त सब कुछ हार जाता है। जिंदगी की पहेली में जो जीतने चलता है, वह हार जाता है। क्योंकि जीतना तो सदा भविष्य में ही हो सकता है, कल ही हो सकता है। आज तो तैयारी में ही बिताना पड़ता है, आज तो तैयारी ही करनी पड़ती है। कल के लिए तैयारी करनी पड़ती है। प्रेम तो अभी हो सकता है, लेकिन युद्ध अभी नहीं हो सकता। क्योंकि प्रेम के लिए किसी तैयारी की जरूरत नहीं है, युद्ध के लिए तैयारी की जरूरत है। खयाल करते हैं आप? प्रेम तो अभी हो सकता है, यहीं, इसी क्षण। लेकिन युद्ध अभी नहीं हो सकता । युद्ध के लिए तैयारी करनी पड़ती है।
इतिहासविद कहते हैं कि अब तक इतिहास ने दो तरह के समय जाने हैं : युद्ध का समय और युद्ध की तैयारी का समय। शांति तो अब तक जानी नहीं। दस-पंद्रह साल एक मुल्क को युद्ध की तैयारी करनी पड़ती है, फिर युद्ध करना पड़ता है; फिर तैयारी करनी पड़ती है, फिर युद्ध करना पड़ता है। आक्रमण पुरुष चित्त का लक्षण है: जीतो,