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उद्देश्य-मुक्त जीवन, आमंत्रण भना भाव व बमबीय मेधा
बेटों को मरते वक्त बाप कह जाते हैं कि ध्यान रखना अपने वंश की परंपरा का। उसी के अनुसार चलना। जो नहीं हम कर पाए, तुम करके दिखाना। आश्चर्य है, तुम भी कोरे गए, तुम व्यर्थ गए, तुम बेटे को भी व्यर्थ किए जा रहे हो! लेकिन हर बाप अपने रोगों को अपने बेटे को दे जाता है। हर पीढ़ी अपनी बीमारियां बड़ी सुविधा से, बड़ी व्यवस्था से नई पीढ़ी को सौंप जाती है धरोहर में। और इसलिए हर नई पीढ़ी और ज्यादा बीमार होती चली जाती है।
लोग कहते हैं, कलियुग कैसे आया? कलियुग आने का ढंग है यह। अगर दस हजार साल से हर बाप अपनी बीमारी बेटे को देता चला जा रहा है, तो बीमारियां तो बढ़ती चली जा रही हैं। और बेटे की ताकत! तो बीमारियों का ढेर होता चला जा रहा है। यह कलियुग आता है तुम्हारे सतयुग की सारी बीमारियों का संग्रह है। दशरथ राम को दे गए होंगे। राम लव-कुश को दे गए होंगे। और चला आ रहा है। तो एक-एक बेटे की छाती पर भारी पहाड़ इकट्ठे हो गए हैं। और उन पहाड़ों के नीचे वह दबा जा रहा है। लेकिन बाप देना चाहता है, क्योंकि अधूरी आशा अभी भी टिमटिमाती रहती है कि शायद कोई पूरा कर ले, मेरे खून का कोई हिस्सा पूरा कर ले।
लाओत्से कहता है कि क्या यह नहीं हो सकता कि तुम उद्देश्य से जीयो ही मत; तुम सिर्फ जीओ!
तथाकथित महात्मागण कहेंगे, वैसा जीवन तो पशुओं जैसा हो जाएगा, तो पशुओं जैसा हो जाएगा। एक अर्थ में वे ठीक कहते हैं और एक अर्थ में गलत कहते हैं। एक अर्थ में पशुओं जैसा हो जाएगा, क्योंकि पशु क्षण में ही जीते हैं। कल का उन्हें पता नहीं। टाइम कांशसनेस तो पशु को समय की कोई कल्पना नहीं होती। इसलिए वह जोड़ भी नहीं सकता। अतीत का भी स्मरण नहीं रख सकता ज्यादा। भविष्य का भी बहुत खयाल नहीं रख सकता। बहुत छोटा सा उसका समय का दायरा है। वह उसी में जीता है।
एक अर्थ में तो वे ठीक कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति, जो निरुद्देश्य जीता है, पशु की तरह हो जाएगा। लेकिन एक अर्थ में बिलकुल गलत कहते हैं। क्योंकि ऐसा जो व्यक्ति है, वह इसलिए नहीं क्षण में जीता कि उसे कल का पता नहीं है। उसे कल का पूरी तरह पता है, आपसे ज्यादा पता है। इसीलिए वह क्षण में जीता है। उसे पता है कि कल सिवाय विषाद के कुछ भी नहीं लाता। उसे पता है कि कल तक खींचने की कोई जरूरत नहीं है। इसलिए नहीं कि उसे समय का पता नहीं है, कि उसकी कोई समय की धारणा में कमी है। सच तो यह है कि समय का उसे इतना पता है कि समय उसे धोखा नहीं दे सकता। तो एक अर्थ में तो वह पशु जैसा जीएगा, पशु जैसा सरल हो जाएगा। वैसे आदमी की आंख में गाय की आंख जैसी झलक आ जाएगी। एक अर्थ में तो वह ऐसा हो जाएगा। और दूसरे अर्थ में वह परमात्मा जैसा हो जाएगा, क्योंकि समय उसे धोखा नहीं दे सकता।
लेकिन कठिनाई है। मैं अभी एक जैन मुनि विद्यानंद की एक छोटी सी किताब देख रहा हूं-समय का मूल्य। तो जैसा साधारण बुद्धि कहती है, एक क्षण को भी व्यर्थ मत खोओ, क्योंकि समय बहुत मूल्यवान है। इसलिए व्यर्थ मत खोओ, उस समय से कुछ कमाओ, अर्जित करो। दुकानदार ऐसी बात कहे, समझ में आता है। दुकानदार लिखे ही रहता है, टाइम इज़ वेल्थ; वह लिखे रहता है, समय धन है। लेकिन एक मुनि भी यही कहता है कि समय धन है, खोओ मत। इसको मोक्ष पाने में लगाओ, इसको आत्मा की खोज में लगाओ, इसको पुण्य में लगाओ। देखो, समय खो न जाए। क्योंकि समय लौट कर नहीं आएगा। लेकिन किसी चीज को पाने में लगाओ, अन्यथा खो गया, मतलब यह है। किसी चीज को पाने में लगाओ, अन्यथा खो गया। अगर कुछ न पाया, तो खो गया।
लाओत्से जो कह रहा है, वह गहरी धार्मिक बात है। वह दुकानदार की भाषा नहीं है। _और असल में, जो साधु दुकानदारों को प्रभावित कर पाते हैं, उसका कारण कुल इतना ही होता है कि भाषा दोनों की एक ही होती है। नहीं तो प्रभावित भी नहीं कर सकते। दुकानदार भी सिर हिलाता है कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं, टाइम इज़ वेल्थ, समय धन है, बिलकुल है। अब रह गई बात इतनी कि उस धन की परिभाषा क्या करें। इसी