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ताओ उपनिषद भाग २
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सकते। क्योंकि मैंने पहली भूल ही नहीं की, आपके हाथ में वह ताकत ही नहीं दी। मैंने कभी आपसे कोई आशा नहीं बांधी। लेकिन मैं आपसे आशा बांध लूं, छोटी, सस्ती आशा बांध लूं कि रास्ते पर निकलेंगें तो कम से कम हाथ जोड़ कर नमस्कार करेंगे, तो भी आप मुझे निराश कर सकते हैं। आप मेरे मालिक हो गए। आज निकले रास्ते पर और आपने मुंह दूसरी तरफ कर लिया और नमस्कार नहीं किया, तो मेरी छाती में छुरे का घाव हो जाएगा। निराश हो गया मैं। तब मैं कहूंगा, जीवन बिलकुल बेकार है। इस आदमी पर इतना भरोसा किया था और यह नमस्कार तक नहीं कर रहा है! अगर आशा बांधी, तो निराशा हाथ लगती है; अगर उद्देश्य बनाया, तो एक दिन निरुद्देश्यता के गड्ढे में गिर जाना पड़ता है।
1 लाओत्से कहता है, बनाओ ही मत, जीवन को जीओ बिना उद्देश्य के। और तब विषाद तुम्हारे भाग्य में कभी भी फलित नहीं होगा। तब तुम प्रतिक्षण ताजे और नए और आनंद से भरपूर हो सकोगे। |
तो पहली तो बात, बड़ा विरोध लाओत्से का है उद्देश्य से । छोड़ दो उद्देश्य । मांगो ही मत भविष्य से कुछ। फिर भविष्य जो भी दे देगा, अनुग्रह है। मांगो ही मत मांगा कि उपद्रव शुरू हो जाता है। और हम सब मांगते हैं। इसलिए हमारा पूरा जीवन एक उपद्रव हो जाता है। संबंध हों, तो हम मांगते हैं। अगर मैं किसी से प्रेम करूं, तो मांगता हूं। कल सुबह से फिर ललचाई आंखों से देखता हूं कि उसका प्रेम मुझे मिले। तब सब दुख हो जाता है। आदर, तो आदर मांगने लगता हूं। दया, तो दया मांगने लगता हूं। जो भी मेरी मांग है, वही फिर मुझे विषाद में गिराती चली जाती है।
और विषाद में गिर कर मैं मांगना बंद नहीं करता; मजे की बात यह है। अगर मैं आपसे नमस्कार मांगता था और आपने नहीं दी, तो इससे मैं यह नहीं सोचता कि मांगना ही बंद कर दूं। क्यों गुलाम बनता हूं ? नहीं, मैं किसी दूसरे से मांगना शुरू कर देता हूं। कि यह आदमी गलत साबित हुआ, तो कोई दूसरा आदमी सही साबित होगा । लेकिन मेरी पुरानी आदत जारी रहती है। अगर मेरा प्रेम एक जगह असफल होता है, तो मैं दूसरे व्यक्ति से प्रेम करना शुरू कर देता हूं। अगर एक सीढ़ी पर मुझे रास्ता नहीं मिलता, तो मैं दूसरी सीढ़ी से अहंकार की खोज कर लेता हूं। अगर एक तरफ महत्वाकांक्षा टूटती है, तो मैं दूसरे मार्ग खोज लेता हूं। लेकिन मैं यह कभी नहीं सोचता कि क्या ऐसा भी नहीं हो सकता - लाओत्से यही कहता है— क्या ऐसा नहीं हो सकता कि बिना उद्देश्य के कोई जीए ?
हो सकता है। कठिन है, क्योंकि हमारा सारा शिक्षण उद्देश्य का है। कठिन है, क्योंकि हमारी पूरी संस्कृति उद्देश्य सिखाती है। कठिन है, क्योंकि समाज हमें बनाता ही उद्देश्य के लिए है। बाप के जो-जो उद्देश्य अधूरे रह गए, वह अपने बेटे की छाती में आरोपित कर जाता है। मां के जो-जो उद्देश्य अधूरे रह गए, वह उसकी बेटी में बीज डाल जाती है । मनसविद कहते हैं कि हर बेटा अपने बाप की निराशाओं आशाओं का फिर से विस्तार करता है। हर बाप मरते दम तक आखिरी दम तक इसी कोशिश में रहता है कि जो काम वह नहीं कर पाया, उसका बेटा पूरा कर जाए । आशाएं हमारी टूटती नहीं हैं। हम उन आशाओं को शाश्वत करना चाहते हैं।
इसलिए पुराने शास्त्र तो कहते हैं कि जिसका बेटा नहीं हुआ उसका जीवन बेकार है। बड़े मजे की बात है । जीवन अपना है, लेकिन बेटे के न होने से बेकार हो जाएगा। क्यों? क्योंकि अगर बेटा न हुआ, तो तुम्हारी अधूरी आकांक्षाओं का क्या होगा? तुम किसके कंधे पर सवार होकर शाश्वत की यात्रा पर निकलोगे? इसलिए बेटा तो होना ही चाहिए। तो अपना भी न हो, तो उधार भी लिया जा सकता है, गोद भी लिया जा सकता है। लेकिन मेरी अधूरी, दुष्पूर आकांक्षाओं को कोई तो अपने कंधे पर लेकर चले! मैं नहीं रहूंगा, लेकिन मेरी आशाएं- आश्चर्य है, मैं भी नहीं रहूंगा, फिर भी मेरी आशाएं बनी रहें।
लाओत्से कहता है, तुम भले रहो, आशाओं को जाने दो। और हम ऐसे हैं कि हम भला मिट जाएं, लेकिन हमारी आशाएं न मिटें |