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________________ उप्रय-मुक्त जीवब, आमंत्रण भरा भाव व बमबीय मेधा लाओत्से कहता है कि क्या एक सम्राट भी बिना उद्देश्य के नहीं जी सकता? क्योंकि सम्राट को तो, जीवन में जो भी पाने योग्य है, वह मिल गया है। इसलिए वह सम्राट की बात कर रहा है। अगर एक भिखारी से कहे, तो भिखारी कहेगा, बिना उद्देश्य के कैसे जी सकता हूं? अभी एक मकान भी मेरे पास नहीं। इसलिए उसकी बात छोड़ दे रहा है। एक सम्राट की बात उठा रहा है, कि क्या एक सम्राट भी बिना उद्देश्य के नहीं जी सकता? उसके पास सब है, जो भी मिल सकता था। लेकिन वह भी बिना उद्देश्य के नहीं जी सकता। क्यों? क्योंकि चीजों से उद्देश्य का कोई संबंध नहीं है। उद्देश्य से जीने की बीमारी हमारे मन की बीमारी है। सब मिल जाए, तो भी मन पूछता है कि क्यों? किसलिए? पूछता ही चला जाता है। इसलिए बहुत अजीब घटना घटती है। गरीब आदमी इतना दुखी कभी नहीं होता, जितना अमीर आदमी दुखी हो जाता है। और अगर अमीर होकर भी कोई दुखी न हुआ हो, तो समझना कि अभी गरीब है। अमीर होने का लक्षण ही यही है कि आदमी इतना दुखी हो जाए कि दुख से बचने का कोई उपाय न सूझे। अमीर होने का मतलब ही यही है कि वे सब चीजें मिल गईं जिनसे आशा थी कि सुख मिलेगा, और सुख नहीं मिला। सब चीजें इकट्ठी हो गईं और आदमी बीच में खड़ा है। और अब कुछ पाने को भी नहीं बचा। और जो पाना चाहा था, वह मिला भी नहीं। तब दुख का जन्म होता है। गरीब आदमी कष्ट में रहता है, दुख में कभी नहीं। कष्ट का मतलब होता है, कोई चीज की कमी है। कष्ट हमेशा अभाव से होता है। रोटी नहीं है, पेट खाली है, तो कष्ट होता है। दुख होता है, जब पेट भरा होता है और भरेपन का बिलकुल अनुभव नहीं होता। सोने को बिस्तर नहीं है, तो कष्ट होता है। दुख तब होता है, जब बिस्तर तो श्रेष्ठतम उपलब्ध है और सोना मुश्किल हो गया। कष्ट होता है अभाव से, दुख होता है भाव से। कष्ट होता है किसी चीज की कमी से, और दुख होता है किसी चीज के होने से। कष्ट गरीब आदमी का हिस्सा है, दुख अमीर आदमी का हिस्सा है। तो जब दुख हो तो समझना चाहिए आदमी अमीर हुआ। यह दुख क्या है? यह दुख यही है कि जब तक हम दौड़ते रहते हैं, दौड़ते रहते हैं, लगता है कोई चीज पाने को मंजिल है, तो जीवन में रस मालूम होता है। इसलिए गरीब आदमी की जिंदगी में एक रस होता है। क्योंकि उद्देश्य दूर होते हैं-कल, भविष्य में, जन्म के बाद। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि परलोक की कल्पना गरीब का संतोष है। थोड़ी दूर तक सच है। क्योंकि गरीब को अगर जीना हो, तो परलोक की कल्पना के बिना वह जी नहीं सकेगा। दौड़ेगा कैसे? उठेगा कैसे? चलेगा कैसे? और अगर परलोक हटा दो, तो फिर कोई समाजवाद, कोई साम्यवाद, कोई उटोपिया, इसी जमीन पर; लेकिन कल। नहीं तो गरीब आदमी जीएगा कैसे? कोई न कोई कल चाहिए, चाहे परलोक में हो वह सपने का लोक, और चाहे जमीन पर हो; लेकिन कल। तो गरीब आदमी दौड़ लेता है-लक्ष्य, उद्देश्य। लेकिन अगर सभी उद्देश्य पूरे हो जाएं और सभी लक्ष्य उपलब्ध हो जाएं, तो पहली दफे पता चलेगा कि यह तो दौड़ बिलकुल बेकार हो गई। उद्देश्य सब पूरे हो गए, मंजिल सामने आ गई; और हाथ में कुछ भी नहीं है। इसलिए आज अगर समृद्ध देशों में समृद्ध देशों के दार्शनिक अर्थहीनता, मीनिंगलेसनेस की बात करते हैं, तो विचारणीय है। चाहे सार्च, चाहे काम, चाहे कोई और, हाइडेगर, वे सभी पश्चिम के विचारशील लोग एक ही बात कर रहे हैं कि जीवन बिलकुल अर्थहीन है। यह अर्थहीनता जीवन की नहीं है, यह हमने अर्थहीनता अपने हाथ से पैदा की है। क्योंकि हमने जीवन को सोद्देश्य जीने की कोशिश की है। अब उद्देश्य पूरे हो गए हैं और अर्थ हाथ में नहीं आया, इसलिए हम परेशान हैं। जब भी कोई आदमी कहता है मैं बिलकुल निराश हो गया, तो समझना कि उसकी आशा के कारण ही हुआ है। जिस आदमी ने आशा नहीं बांधी, वह निराश कभी नहीं होता। आप मुझे आकर कभी निराश नहीं कर सकते, क्योंकि मैं आपसे कोई आशा ही नहीं बांधता। तो आप कुछ भी करें, कुछ भी व्यवहार करें, आप मुझे निराश नहीं कर 47
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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