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ताओ उपनिषद भाग २
कि कैसे जीएं। और जैसे ही उद्देश्य हटता है, प्रश्न बदल जाते हैं। जब तक उद्देश्य होता है, हम पूछते हैं, किसलिए जीएं? जैसे ही यह समझ में आ जाए कि जीवन ही अपना लक्ष्य है, वैसे ही प्रश्न का रुख बदल जाएगा। तब हम यह नहीं पूछेगे, किसलिए जीएं? हम पूछेगे, कैसे जीएं?
कैसे से विज्ञान का जन्म होता है-हाऊ? कैसे से योग का जन्म होता है। किसलिए जीएं, इससे हवाई दर्शनशास्त्र, मेटाफिजिक्स का जन्म होता है। फिर हजारों लोग उत्तर देने वाले मिल जाते हैं कि इसलिए जीएं, क्योंकि जीवन के पार एक मोक्ष है और जीवन के पार एक परमात्मा। लेकिन तब सब चीजें जीवन के पार होती हैं। यहां कुछ भी नहीं होता। तब सभी चीजें कब्र के बाद होती हैं; यहां कुछ भी नहीं होता। और जिस व्यक्ति के भी जीवन में कब्र के बाद की तस्वीर बहुत महत्वपूर्ण हो जाए, उसका यह जीवन एक लंबी कब्र बन जाएगा। क्योंकि इस जीवन में कुछ पाने योग्य बचता नहीं, कुछ पाने योग्य बचता नहीं।
इस सारी जमीन पर तथाकथित धर्मों के कारण एक जीवन-निषेध का अंधकार फैल गया; एक लाइफ-निगेशन का। जीवन बेकार है। पार कहीं लक्ष्य है, उसे पाना है। और हमें पता नहीं कि यह उद्देश्य पूछने वाले लोगों को अगर मोक्ष भी मिल जाए, तो एकाध दिन भला ही ये यहां-वहां टहल कर दर्शन करें मोक्ष का, तत्काल पूछेगे कि उद्देश्य क्या है? इस मोक्ष में भी होने से क्या होगा? क्योंकि जिन्होंने सदा यही पूछा है, वे मोक्ष से भी यही सवाल उठाएंगेः कि मान लिया कि यहां शांति है, सुख है; लेकिन फायदा क्या है? इससे मिलेगा क्या? यह क्रानिक क्वेश्चनिंग है, यह जो बीमारी है, स्थायी है। इसको बदल नहीं सकते। यह आदमी कहीं भी पहुंच जाए, यह पूछेगा ही।
मैंने सुना है, मार्क ट्वेन की आदत थी कि जब भी उससे कोई सवाल करे, तो वह जवाब हमेशा सवाल में ही देता था। आप कुछ पूछे, तो वह जो उत्तर देगा, वह एक सवाल होगा। अगर आप उससे पूछे कि आपका नाम क्या है? तो वह नाम नहीं बताएगा, वह पूछेगा कि नाम पूछने का प्रयोजन क्या है? सवाल से सदा ही दूसरे सवाल को वह उठाता था। सुना है मैंने कि अमरीकी प्रेसीडेंट से वह मिलने गया था। अमरीकी प्रेसीडेंट ने उससे पूछा कि मार्क ट्वेन, सुना है मैंने कि तुम हर सवाल के जवाब में पुनः सवाल खड़ा करते हो! मार्क ट्वेन ने कहा, क्या अब भी मैं ऐसा करता हूं? क्या अब भी मैं ऐसा करता हूं, उसने पूछा। क्रानिक! उसे भी पता नहीं कि वह क्या कह रहा है। उसे भी शायद बाद में ही पता चला होगा कि मैंने फिर सवाल ही खड़ा किया है।
यह जो उद्देश्य को पूछने वाली वृत्ति है, यह रुग्ण है। सच तो यह है कि हमारे रोगी चित्त की गवाह है। जब जीवन में आनंद होता है, तो हम नहीं पूछते कि किसलिए?
कभी आपने खयाल किया है, हम सदा पूछते हैं, लोग पूछते हैं, मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, एक बच्चा जन्म से ही अंधा पैदा हुआ, क्यों? वे यह कभी नहीं कहते मुझसे आकर कि इतने बच्चे जन्म से ही अंधे पैदा नहीं हुए, क्यों? अगर कोई आदमी बीमार होता है, तो वह पूछता है, बीमारी क्यों है? स्वस्थ होता है, तो कभी नहीं पूछता कि स्वास्थ्य क्यों है? एक आदमी जब भी सुख में होता है, तो कभी नहीं पूछता कि जगत में सुख क्यों है? और जब दुख में होता है, तो पूछता है, जगत में दुख क्यों है? पांच हजार साल के लिखित प्रश्न हमारे पास हैं उपलब्ध। एक भी आदमी ने नहीं पूछा कि जगत में सुख क्यों है? बुद्ध भी यही पूछते हैं कि जगत में दुख क्यों है? और हर आदमी यही पूछता है कि जगत में दुख क्यों है?
तो जब भी कोई आदमी पूछता है कि जीवन का उद्देश्य क्या है, तो वह यह पूछ रहा है कि जीवन क्यों है? इसका मतलब ही यह है कि सारा जीवन उसने दुख से भर लिया है। अन्यथा वह कभी न पूछता कि जीवन का उद्देश्य क्या है? जीवन क्यों है? वह जीता; और जीना पर्याप्त होता। लेकिन स्थिति ऐसी है कि जीवन हमने दुख से भर लिया है; इसलिए यह सवाल उठता है।
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