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उदेश्य-मुक्त जीवन, आमंत्रण भना भाव व बमबीय मेधा
जीवन में कभी कुछ नहीं किया। या अगर कभी कुछ किया हो, कभी कोई छोटा सा कृत्य भी निरुद्देश्य किया हो, तो लौट कर उसका स्मरण करें।
निरुद्देश्य! कोई नदी में डूबता हो, और आपने घाट पर खड़े होकर इतना भी न सोचा हो कि जीवन को बचाना मेरा कर्तव्य है, कूद पड़े हों क्षण में, बिना सोचे, बिना विचारे, बिना किसी उद्देश्य के, बिना सोचे कि हिंदू है कि मुसलमान है, बचाएं कि न बचाएं, अपना है कि पराया है, कि पीछे काम पड़ेगा कि नहीं काम पड़ेगा, कुछ भी न सोचा हो, बस कोई डूबता था और सहज-स्फूर्त आपके प्राणों में छलांग लग गई हो और आप कूद कर उसे बचा लिए हों, तो आपको एक झलक मिल सकती है आनंद की।
लेकिन हम ऐसे हैं कि अगर ऐसा कोई मौका भी मिल जाए, तो हम उसे बहुत शीघ्र नष्ट कर लेंगे, बहुत शीघ्र नष्ट कर लेंगे। अगर हम एक आदमी को किसी तीव्र प्रेरणा के क्षण में, सहज क्षण में कूद कर बचा भी लें, तो बचाते से ही हम उद्देश्य में पड़ जाएंगे। बचाते से ही, किनारे पर लगते से ही हम सोचने लगेंगे कि यह आदमी धन्यवाद दे रहा है कि नहीं दे रहा है? अखबार में खबर छपेगी कि नहीं छपेगी? कोई देखने वाला आस-पास है या नहीं है? काश, हम थोड़ी देर को भी बिना उद्देश्य के किसी कर्म में डूब जाएं, तो वही कर्म ध्यान बन जाता है।
लेकिन हम तो ध्यान भी करते हैं, तो उद्देश्य से करते हैं। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान करने से जीवन में सफलता तो मिलेगी न!
जीवन की सफलता और ध्यान? वे पूछते हैं कि आर्थिक हालत खराब जा रही है, ध्यान करने से प्रभु की कृपा तो उपलब्ध होगी न!
तो ध्यान भी एक इनवेस्टमेंट है। और ध्यान भी उनके धंधे का एक हिस्सा है। ध्यान भी! हम सोच ही नहीं सकते कि उद्देश्य से ध्यान का कोई संबंध नहीं है। यह भी कहना गलत है कि ध्यान से आनंद मिलेगा। यह भी कहना गलत है। हालांकि इसका यह अर्थ नहीं कि ध्यान से आनंद नहीं मिलता है। ध्यान से ही आनंद मिलता है। लेकिन यह भी कहना गलत है कि ध्यान से आनंद मिलेगा। क्योंकि जो आनंद के लिए ध्यान करेगा, वह ध्यान कर ही नहीं पाएगा। ध्यान के लिए ही जो ध्यान करेगा, उसे आनंद जरूर मिल जाता है। कर्म के लिए ही जो कर्म में उतर जाता है, प्रत्येक कृत्य को ही जो उस क्षण में पूरा बना लेता है और स्वयं को पूरा डुबा देता है, पीछे कोई बचता ही नहीं है, उसका पूरा जीवन ही ध्यान हो जाता है।
लाओत्से कहता है, एक सम्राट भी चाहे तो विराट जनसमूह के प्रति प्रेम, बड़े राज्य की व्यवस्था, इसको भी खेल बना सकता है। इसको भी बिना उद्देश्य के जी सकता है। लेकिन वह प्रश्नवाचक उसका वक्तव्य है।
___ वह कहता है, 'जनसमूह के प्रति प्रेम प्रदर्शित करने में और शासन के व्यवस्थापन की प्रक्रिया में क्या वह सोद्देश्य कर्म के बिना अग्रसर नहीं हो सकता? क्या वह स्वर्ग के अपने दरवाजे (नासारंध्र) को खोलने और बंद करने में एक स्त्रैण पक्षी की तरह काम नहीं कर सकता? जब उसकी मेधा सभी दिशाओं की ओर अभिमुख हो, तो क्या वह ज्ञानरहित होने जैसा नहीं दिख सकता?'
ये प्रश्न इसलिए उठा रहा है लाओत्से, वह जो कहना चाहता है, वह बहुत स्पष्ट है, लेकिन प्रश्न के साथ कहना चाहता है। क्योंकि हम जैसे हैं, बहुत संदिग्ध मालूम पड़ता है लाओत्से को भी कि हम निरुद्देश्य हो सकेंगे। लेकिन हो सकते हैं। होने का रास्ता क्या है? और होने से क्या फलित होगा? होने से क्या घटित होता है?
तो तीन बातें समझ लें।
एक: जीवन अपने में ही अपना लक्ष्य है। जीवन के पार कोई भी लक्ष्य नहीं है। कितना ही हमारे मन को कठिनाई होती हो यह बात स्वीकार करने में, यह तथ्य है। इसलिए ऐसा सोचें ही मत कि किसलिए जीएं; ऐसा सोचें