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________________ ताओ उपनिषद भाग २ आपके बगल में कोई आदमी चल रहा हो जो घूमने निकला हो, तो उसे अभी भी वही रस मिल रहा है। लेकिन सुबह घूमने में भी अगर किसी ने इसको रिलीजस ड्यूटी बना रखा हो, एक धार्मिक कृत्य बना रखा हो कि पांच बजे उठ कर घूमना ही है, अन्यथा पाप हो जाएगा, तो यह आदमी घूमने में भी सुख को खो देगा। इसका घूमना भी एक कर्तव्य है, करना है। यह घूमेगा भी ऐसे, जैसे दफ्तर जा रहा है, दूकान जा रहा है। यह घूमने से लौटेगा भी ऐसे कि ठीक है, एक काम से छुटकारा मिला, एक काम पूरा कर लिया है। / जहां उद्देश्य है, वहां भार हो जाता है। जहां उद्देश्य नहीं है, वहां निर्भार दशा उत्पन्न हो जाती है। और जितना निर्भार हो व्यक्ति, उतनी आनंद की संभावना बढ़ती है। और जितना भारग्रस्त हो, उतना जीवन एक बोझ और किसी तरह गुजारने जैसा हो जाता है। हम प्रत्येक चीज को कर्तव्य बना लेते हैं, खेल नहीं। और लाओत्से को समझेंगे, तो लाओत्से यह कह रहा है कि पूरा जीवन एक खेल है। हम खेल को भी कर्तव्य बना लेते हैं। हम अगर खेलने भी बैठते हैं, तो हमारी आंखें और हमारे चेहरे पर जो सिकुड़न होती हैं, वे काम की होती हैं। इसलिए अगर दो लोग ताश खेलते हैं, तो अकेले ताश खेलने में सुख नहीं आता, जब तक वे कुछ रुपए दांव पर न लगा लें, थोड़े ही सही। क्योंकि रुपए लगाते से ही खेल काम बन जाता है; रुपए लगाते से ही उद्देश्य आ जाता है खेल में। चाहे वह करोड़पति क्यों न हो, वह एक रुपया लगा कर उद्देश्य पैदा कर लेगा। एक रुपया मिलने से कुछ मिलने वाला नहीं, लेकिन फिर भी उद्देश्य हो गया। अब खेल में रस आ जाएगा, जान आ जाएगी। खेल अपने में काफी नहीं था। एक रुपए ने आकर खेल को भी प्राण दे दिए। रुपया हमारी इतनी भारी आत्मा हो गई है कि उसे खेल में भी न डालें, तो खेल भी बेकार है। धंधा बन जानी चाहिए हर चीज।। उद्देश्य का अर्थ है कि प्रत्येक काम किसी और चीज के लिए किया जा रहा है। रस उस चीज के पाने में है; यह काम तो एक मजबूरी है। अगर बिना काम किए वह मिल जाए, तो हम इस काम को तत्क्षण छोड़ देंगे। चूंकि बिना काम किए लक्ष्य नहीं मिलता, इसलिए काम हमें करना पड़ता है। तो हम खेल को भी व्यवसाय बनाते हैं। हम प्रेम को भी काम में रूपांतरित कर लेते हैं। मां अपने बेटे की सेवा कर रही है, तो उसको भी कर्तव्य बना लेती है। पति अपनी पत्नी के लिए अगर श्रम कर रहा है, तो उसको भी कर्तव्य बना लेता है। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, गृहस्थी है, कर्तव्य को निभाना है। अगर कर्तव्य को निभाना है, तो गृहस्थी है कहां? घर नहीं है, वहां भी दूकान है। घर का तो मतलब ही यह होता है कि वह हमारा आनंद है। अगर पति इसलिए काम कर रहा है कि ठीक है, एक पत्नी पाल ली है पीछे, तो कर्तव्य है। और मां अगर बेटे को इसलिए दूध पिला रही है कि ठीक है, भाग्य में था, पैदा हो गया है, तो काम पूरा कर लेना है। लेकिन हमारे जो सोद्देश्य ढंग हैं जीवन के, वे सभी चीजों पर ऐसी काली छाया डाल देते हैं। कुछ भी चीज खेल नहीं है। किसी भी चीज में हम इतने मुग्ध नहीं हो जाते कि पार की चिंता छोड़ दें। एक क्षण को भी हम वहां नहीं हो पाते जहां हम हैं; सदा मन कहीं और होता है। लाओत्से कहता है, 'जनसमूह के प्रति प्रेम प्रदर्शित करने, शासन की व्यवस्था की प्रक्रिया में, अनुशासन में, सोद्देश्य कर्म के बिना क्या अग्रसर नहीं हुआ जा सकता है?' वह कहता है, एक सम्राट भी शासन की व्यवस्था को क्या एक खेल नहीं बना सकता है ? बना तो भिखारी भी नहीं पाता। लाओत्से कह रहा है, एक सम्राट भी चाहे तो शासन के विराट कर्म को भी एक खेल बना सकता है। उद्देश्य को छोड़ दे। हमें तत्काल लगता है कि अगर उद्देश्य को छोड़ दें, तो हम बैठ जाएंगे। फिर हम कुछ करेंगे ही क्यों? उद्देश्य को हमने छोड़ा कि हमें लगता है करना ही खो जाएगा। क्योंकि हमने सदा ही उद्देश्य के लिए किया है। निरुद्देश्य हमने 144
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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