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ताओ उपनिषद भाग २
हमें आदमी को सिखानी पड़ती है। लेकिन उस बुराई के बाहर निकला जा सकता है। और पुनः उस बुराई के बाहर निकलना जीवन को बहुत गहन रूप से समृद्ध कर जाता है। फिर से बच्चे हो जाना जीवन को बहुत समृद्ध कर जाता है। और तब यह सारी दौड़ एक अभिनय हो जाती है। और भीतर गहरे में हम जानते हैं कि जीवन निरुद्देश्य है।
निरुद्देश्य का अर्थ? निरुद्देश्य का अर्थ है कि जीवन का प्रतिपल अपना उद्देश्य है। जहां हैं हम, जो हैं हम, वहीं परिपूर्णता जीवन की है। हम कल के लिए न जीएं, क्योंकि कल के लिए जीने में हम सिर्फ आज को खोते हैं।
और जिस आज को हम खोते हैं, उसे हम पुनः फिर न पा सकेंगे। और जिस व्यक्ति को आज को खोने की आदत बन गई, वह कल को भी खो देगा। क्योंकि कल जब आज बनेगा, और ध्यान रहे, कल जब भी आएगा मेरे हाथ में, वह आज की शक्ल में आएगा। कल की शक्ल में तो कोई कल आता नहीं। जब कल मेरे पास आएगा, तो वह आज होगा। और आज को मैंने सदा ही कल के लिए कुर्बान करने की आदत बना ली है। तो मैं पूरे जीवन को कुर्बान करता जाऊंगा। और आखिर में पाऊंगा कि मौत के अतिरिक्त मेरे हाथ में कुछ भी नहीं बचा।
हम सभी अपने जीवन को ऐसे ही खोते हैं। जिसे हम आज कह रहे हैं, यह भी तो कल कल था। लेकिन कल के दिन को हमने खोया था आज के लिए। आज को हम खोते हैं कल के लिए। कल को हम खोएंगे और आगे के लिए। और ऐसे हम समय को खोते चले जाएंगे। और एक दिन हम पाएंगे कि सिवाय आशाओं की राख के हमारे हाथ में कुछ भी छूट नहीं गया है। उद्देश्य तो कुछ पूरा नहीं हुआ, जीवन खो गया।
एक क्षण से ज्यादा हमें उपलब्ध नहीं है। दो क्षण किसी को भी नहीं मिलते हैं एक साथ। एक क्षण मिलता है, बारीक क्षण। और वह क्षण भी कोई स्थिर बात नहीं है। दौड़ती हुई, भागती हुई, निरंतर शून्य में खोती हुई प्रक्रिया है। हाथ में आता नहीं कि छूट जाता है। उस क्षण को, लाओत्से कहता है, अगर हमने किसी भी साध्य के लिए समर्पित किया, तो हम जीवन से वंचित हो जाएंगे। वह साध्य कोई भी हो, चाहे क्षुद्र धन हो और चाहे श्रेष्ठ धर्म हो, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। चाहे इसी जमीन पर एक महल बनाने का लक्ष्य हो और चाहे स्वर्ग में महल को पा लेने की कामना हो! और चाहे यहीं किसी बड़े पद पर बैठ जाने की आकांक्षा हो और चाहे मोक्ष में सिद्धशिला पर विराजमान होने की वासना हो। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। कल की आकांक्षा जहर है, क्योंकि आज के जीवन को समाप्त कर जाती है।
यह क्षण क्या अपने में ही नहीं जीया जा सकता? क्या यह क्षण अपने में ही पूरा नहीं माना जा सकता?
इसका यह अर्थ नहीं है कि कल आपको ट्रेन पकड़नी है, तो आपको आज ही पकड़नी पड़ेगी। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि आप कल पकड़ने वाली ट्रेन का टाइम-टेबल आज नहीं देख सकते हैं। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि एक वर्ष में आपकी फैक्ट्री बन कर पूरी होगी, तो आज उसकी आप योजना नहीं कर सकते हैं। लोगों के मन में ऐसे सवाल उठते हैं कि फिर क्या होगा! कल का तो तय आज करना पड़ेगा कि कल सुबह मुझे पांच बजे उठ कर ट्रेन पकड़नी है। लेकिन इसे थोड़ा समझें, तो खयाल में आ जाएगा।
जब आप इसे तय कर रहे हैं, तब तय करने की प्रक्रिया वर्तमान की प्रक्रिया है। अभी इस क्षण में तय कर रहे हैं। तो इस तय करने में इतना आनंद लें, जितना तय करने में लिया जा सकता है। और किसी भी चीज को तय करना अपने आप में आनंद है। किसी भी चीज को डिसीजन तक ले जाना अपने आप में आनंद है। इस आनंद को अभी लें कि आप कल सुबह पांच बजे उठने वाले हैं। यह इसी क्षण का निर्णय है। और इसको, इसी क्षण के निर्णय को पूरा हो जाने दें। कल सुबह पांच बजे उठने का आनंद लेना। आज के क्षण में पांच बजे उठने के निर्णय का आनंद लें।
लेकिन आज का क्षण इसलिए परेशानी में बीत जाए कि कल सुबह पांच बजे उठना है और कल पांच बजे सुबह उठ कर और आगे की परेशानियां होंगी, हर क्षण आगे आने वाली परेशानी में बीत जाए, तो हम अस्तित्व से कभी संयुक्त नहीं हो पाते।
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