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धर्म है-स्वयं जमा हो जाना ,
इसको खुद भी बड़े होकर पता नहीं चला है। मगर एक बात इसको पता चल गई है कि बड़े होते-होते जिज्ञासा मर जाती है। पूछेगा ही नहीं, जानने का कोई सवाल नहीं है। यह बेटा भी कल बूढ़ा होकर अपने बेटे से कहेगा कि घबड़ाओ मत, अभी तुम्हारी उम्र कम है, जब उम्र बड़ी हो जाएगी, सब जान लोगे। लेकिन जिनकी उम्र बड़ी है, उनको क्या पता है? कुछ पता नहीं है। सिर्फ उनकी जिज्ञासा मर गई। उनकी जो ताजगी थी पूछने की, वह खो गई। जो खोजने की आकांक्षा थी, वह मर गई। ढेर सिद्धांतों के उनके पास हो गए। हर चीज का उत्तर उनके पास है। प्रश्न उनके पास एक भी नहीं है, उत्तर उनके पास सब हैं। प्रश्न उनके बिलकुल खो गए हैं। जानकारी बहुत उनके पास हो गई है।
इसलिए बूढ़े के भीतर शरीर ही बूढ़ा हो जाए, यह तो स्वाभाविक है। लेकिन यह आत्मा का बूढ़ा हो जाना है। शरीर तो बूढ़ा हो, यह स्वाभाविक है। लेकिन अगर किसी बूढ़े के भीतर शरीर बूढ़ा हो और बच्चे जैसी जिज्ञासा जारी रहे, तो बुढ़ापे से ज्यादा सुंदर और घटना जगत में दूसरी नहीं है। क्योंकि तब बच्चे जैसी ताजी ओस सुबह की भीतर होती है। और जिंदगी के अनुभव कचरे की तरह दबा नहीं पाते और जिंदगी की धारणाएं राख नहीं बन पातीं, तो वैसे बूढ़े की आंखों में बच्चा झांकता है। और जिस दिन अनुभव हो बूढ़े का और जिज्ञासा हो बच्चे की, उस दिन व्यक्ति सत्य के निकटतम होता है।
लेकिन हमारी तकलीफ यह है कि हम सोचते हैं कि अगर हमें पहले से पता ही नहीं है, तो हम खोजने ही क्यों जाएंगे?
खोजने जाने का मतलब ही यह होता है कि पता नहीं है, इसलिए हम खोजने जाते हैं। धारणा हत्या है स्वयं की और सत्य से बचने का उपाय है।
कहा है उन्होंने, 'क्या जिज्ञासा का मूल कारण वस्तु-तत्व का पूर्व-ज्ञान नहीं है?' __ अगर पूर्व-ज्ञान ही है, तो जिज्ञासा तो फिर मूढ़ता होगी। ज्ञान के भी पूर्व ज्ञान कैसे हो सकता है? ज्ञान होगा, तभी! और जब ज्ञान होगा, तो जिज्ञासा खो जाएगी।
खतरा यही है कि बिना ज्ञान हुए भी जिज्ञासा खो सकती है, अगर हम दूसरों के ज्ञान को अपना ज्ञान मान लें। उसे हम पूर्व-ज्ञान कहते हैं। महावीर कहते हैं कि आत्मा है अनंत वीर्य, अनंत आनंद, अनंत ज्ञान; ऐसी है, ऐसी है, ऐसी है। यह उनका ज्ञान है। हमारे लिए यह पूर्व-ज्ञान बन सकता है। इस पूर्व-ज्ञान का मतलब क्या हुआ? इसका मतलब हुआ, यह महावीर का ज्ञान है; हमें तो कुछ पता नहीं इस आत्मा का। लेकिन महावीर के शब्दों को हम स्वीकार कर लेते हैं।
महावीर के शब्दों को कितने लोग स्वीकार किए हुए हैं, उनमें से कौन महावीर की खोज पर जाता है? बुद्ध को कितने करोड़ों लोग मानते हैं; लेकिन कौन बुद्ध जैसा खोजता है? वह तो भला हो कि बुद्ध को कोई और बुद्ध नहीं मिला पूर्व-ज्ञान देने वाला। खुद ही खोजा, तो पाया। सत्य स्वयं की खोज से मिलता है। इतना सस्ता नहीं है कि दूसरे से मिल जाए।
हां, दूसरे से ज्ञान मिल सकता है। लाओत्से उस ज्ञान को ही कहता है, छोड़ो! यह बुद्धिमत्ता छोड़ो, जो उधार है।
पूछा है, 'क्या स्व-बोध आनंद-रूप नहीं है? यदि है, तो स्व-बोध को आनंद-रूप मानने में आपको संकोच क्यों है? श्रुतियां तो आत्मा को स्पष्ट रूप से आनंद-स्वरूप मानती हैं।'
श्रुतियां मानती होंगी। जिन्होंने कहा होगा, उन्होंने जाना होगा। जिन्होंने जाना है, उन सभी ने कहा है कि वह आनंद-रूप है। लेकिन खतरा तो वहां शुरू होता है कि जिन्होंने नहीं जाना वे भी मान लेते हैं कि वह आनंद-रूप है। खतरा जानने वालों का नहीं है, खतरा सुनने वालों के साथ है। आप भी मान कर बैठ जाते हैं कि आनंद-रूप है।
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