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ताओ उपनिषद भाग २
गीता में सुना, तो मन को खुशी हुई होगी; क्योंकि गीता पहले से ही माने बैठे थे। तो लगा होगा कि ठीक वही कह रहे हैं, जो मैं मानता हूं। चित्त को बड़ी शांति मिलती है। मेरे अहंकार में एक और ईंट जड़ गई। मकान और थोड़ा बड़ा हुआ। अगर कोई ऐसी बात पता चले कि मकान की एक ईंट खिसक गई और नींव हिलने लगी, तो बेचैनी होती है। हम सत्य की तलाश में थोड़े ही हैं; हम अपने ही मन की तलाश में हैं। हमारा मन सिद्ध हो जाए; और सब बुद्ध, महावीर, कृष्ण, कबीर हमारे गवाही हो जाएं। गवाही, अदालत में जैसे आदमी गवाहियां खड़ी कर देता है कि ये बारह गवाह खड़े हैं मेरे; ऐसा हमारा भी मन है कि महावीर, बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट, हमारे गवाह की तरह खड़े हो जाएं और कहें कि तुम बिलकुल ठीक हो। तुम ठीक हो, यह सारे लोग कह दें, तो चित्त बड़ा प्रसन्न होता है।
लेकिन ये लोग बड़े गड़बड़ हैं। यह आपको ठीक करने की इन्हें जरा भी चिंता नहीं है। जो ठीक है, वही ठीक है; चाहे उसमें आपको मिटना ही क्यों न पड़े। लेकिन ध्यान रखें, उनकी दया बड़ी है। अगर आपको ठीक कह दें, तो आप बीमार ही बने रहोगे। आपकी बीमारी और बढ़ेगी। समर्थित हो जाएगी, तो और बढ़ेगी। आप कोई भी धारणा जब तय ही कर लेते हैं, तो फिर सत्य की खोज उसी क्षण बंद हो गई। सत्य की तरफ जाने का अर्थ ही है कि मैं निष्पक्ष जा रहा हूं।
लेकिन उन मित्र ने पूछा है कि अगर हम इसको मान ही न लें कि आत्मा भीतर है, तो आत्मा को जानने की प्रवृत्ति ही क्यों पैदा होगी?
उनका खयाल है कि जिज्ञासा तभी पैदा होती है, जब हमें पता हो कि कुछ है। लेकिन जिज्ञासा यह भी तो हो सकती है कि हमारे मन में खयाल उठे कि कुछ है या कुछ नहीं है? आप इस कमरे के बाहर से निकले; इस कमरे के भीतर क्या है, इसके जानने की जिज्ञासा हो सकती है बिना यह जाने कि क्या है। सच तो यह है कि अगर आपको पक्का ही पहले से भरोसा हो गया है कि कमरे के भीतर क्या है, तो जिज्ञासा की कोई जरूरत न रह गई। जितना बड़ा भरोसा, उतनी कम जिज्ञासा। और अगर श्रद्धा पूर्ण है बिना जाने, तो जिज्ञासा की कोई आवश्यकता ही न रही।
क्या जरूरत है? अगर आपको पता ही है कि भीतर आत्मा है और महावीर, बुद्ध और सब खोज-खोज कर कह गए, अब हम और किसलिए मेहनत करें? और एक दफा पता चल गया, बात खतम हो गई कि है भीतर, हम दूसरा काम करें। इसी में क्यों समय लगाएं? अगर आपको पक्का ही पता चल गया, तो जिज्ञासा मर जाएगी।
नहीं, आपको कुछ भी पता नहीं कि भीतर क्या है। एक घुप्प अंधकार है। ओर-छोर पता नहीं चलते। कोई पहचान नहीं मालूम होती। क्या है भीतर? है भी कुछ या नहीं है? मृत्यु है या अमृत? वहां कोई है भी या सिर्फ एक शून्य है? तब जिज्ञासा पैदा होती है।
जिज्ञासा का अर्थ है : जहां आप अवाक खड़े हैं और आपको कुछ भी पता नहीं है। जहां धारणा है, वहां आप अवाक नहीं हैं; आपको पता है ही। इसलिए धारणा वाले लोग जिज्ञास नहीं होते। जिज्ञासा की तो परिपूर्णता तभी है, जब धारणा की परम शून्यता हो। जिस मात्रा में धारणा, उस मात्रा में जिज्ञासा कम हो जाएगी।
इसलिए बच्चे जिज्ञासु होते हैं, देखा है; बूढ़े जिज्ञासु नहीं होते। क्या कारण है? बच्चे ऐसे प्रश्न पूछते हैं कि . बड़े-बड़े बूढ़े भी उनका जवाब नहीं दे पाते। बच्चे जिज्ञासु होते हैं, क्योंकि धारणा उनकी कोई भी नहीं है। बूढ़े की जिज्ञासा समाप्त हो जाती है, धारणा ही धारणाओं का ढेर लग गया होता है, जिज्ञासा बिलकुल नहीं रह जाती। बूढ़े भी उसी जगत में खड़े होते हैं, बच्चे भी उसी जगत में खड़े हैं। लेकिन बूढ़ों को कोई जिज्ञासा पैदा नहीं होती। सुबह सूरज निकलता है; बूढ़ा भी देखता है, बच्चा भी देखता है। बच्चे को तत्काल जिज्ञासा पैदा होती है-क्या है? पक्षी गीत गाता है। बच्चे को जिज्ञासा होती है-क्या है? बूढ़े को कोई जिज्ञासा नहीं होती। अगर बच्चा पूछता भी है, तो वह कहता है, चुप रहो। जब बड़े हो जाओगे, जान लोगे।
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