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ताओ उपनिषद भाग २
आपको न आनंद का पता है कि आनंद क्या है, आनंद-रूप का क्या अर्थ होगा! न आत्मा का पता है कि आत्मा क्या है! न आनंद का पता है कि आनंद क्या है! लेकिन यह वाक्य बड़ा सुरुचिकर लगता है कि आत्मा आनंद-रूप है। इसका अर्थ क्या होगा?
दुख आपने जाना है। सुख की कभी कोई झलक पाई होगी। आनंद की तो कोई झलक आपको नहीं है। तो जब भी आप समझते हैं कि आत्मा आनंद-रूप है, आप सोचते हैं, खूब सुख, सदा सुख रहेगा, ऐसी कुछ होगी। आपके लिए आनंद का अर्थ सुख का ही विस्तार हो सकता है। सघन सुख होगा, कभी समाप्त न होने वाला सुख होगा-यही आपकी धारणा हो सकती है।
आनंद का सुख से उतना ही संबंध है, जितना दुख से। दोनों से कोई संबंध नहीं है। आत्मा का भी पता नहीं, आनंद का भी पता नहीं; लेकिन शब्द सुनते-सुनते लगता है कि पता हो गया-आत्मा आनंद है। इसको दोहराते रहें बैठ कर आत्मा आनंद है, आत्मा आनंद है। उससे कुछ भी नहीं होगा।।
लाओत्से की दृष्टि यह नहीं है कि आत्मा आनंद नहीं है। लाओत्से यह कह रहा है कि हम कुछ न कहेंगे कि आत्मा क्या है। तुम्हीं जाओ और जानो। हम इतना ही कहेंगे कि तुम कैसे जा सकते हो। हम यह न कहेंगे कि जाने पर तुम्हें क्या मिलेगा। क्योंकि तुम इतने धोखेबाज हो कि बिना जाए यहीं बैठ कर रटने लगोगे कि आत्मा आनंद है, आत्मा आनंद है। और बार-बार पुनरुक्त करके अपने को ही सम्मोहित कर लोगे और यह भूल ही जाओगे कि तुम पहुंचे नहीं हो, तुम्हें कुछ भी पता नहीं है।
सत्य क्या है, इसे कहने से आपको शब्द सुनाई पड़ते हैं, सत्य सुनाई नहीं पड़ता। शब्द सुनाई पड़ते हैं, और बार-बार सुनने से शब्द परिचित हो जाते हैं। और परिचित शब्द खतरनाक हैं।
यहूदियों में एक प्रथा है और कीमती प्रथा है कि परमात्मा का नाम न लिया जाए। तो यहूदियों ने परमात्मा का जो नाम रखा है। वह है याहवेह। उस शब्द का इतना ही मतलब होता है कि जिसका कोई नाम नहीं है। क्योंकि नाम बार-बार दोहराने से कहीं ऐसा भ्रम न पैदा हो जाए कि तुम जानते हो। और याहवेह, जिस शब्द का अर्थ इतना ही होता है कि जिसका कोई नाम नहीं, इसका भी उपयोग नहीं करना है। नहीं तो यही नाम बन जाएगा।
आदमी के लिए तकलीफें हैं। और उन तकलीफों को जो समझते हैं, वे नहीं कहेंगे कि क्या है आत्मा; वे इतना ही कहेंगे कि कैसे तुम जा सकते हो, जाओ। अंधे से क्या फायदा है कहने का कि प्रकाश क्या है। इतना ही काफी है कि क्या है इलाज, क्या है औषधि कि आंखें खुल जाएं। और खतरा है यह कि अंधे को आप बता दें कि प्रकाश यह है और अंधा भी सुन ले। क्योंकि अंधा बहरा तो नहीं है, सुनता है। बल्कि सच यह है कि आंख वालों से अंधे ज्यादा सुनते हैं।
खयाल किया आपने, अंधों के कान तेज हो जाते हैं। आंख की ताकत भी कान को ही मिल जाती है। तो अंधे सुनने में बड़े कुशल हो जाते हैं। अंधों की स्मृति भी ज्यादा होती है आंख वालों से। क्योंकि आंख से बनती हैं हमारी कोई नब्बे प्रतिशत स्मृतियां। वह काम बंद हो जाता है। तो सारी स्मृति की शक्ति कान को मिल जाती है। तो अंधे की स्मृति भी बड़ी तीव्र होती है।
तो अंधे को अगर कोई बता दे कि प्रकाश क्या है, तो वह सुन भी लेगा, समझ भी लेगा, समझेगा कि समझ लिया, कंठस्थ कर लेगा, स्मृति मजबूत हो जाएगी। वह भूल ही जाएगा कि मैं अंधा हूं और प्रकाश से मेरा कोई संबंध नहीं है, और न मेरी प्रकाश से कोई पहचान है, आंख वाले कहते हैं कि प्रकाश ऐसा है। इन मित्र ने लिखा है, श्रुतियां कहती हैं...। आंख वाले कहते हैं कि प्रकाश ऐसा है। आंख वालों के कहने से क्या संबंध है? आंख चाहिए। और खतरा यही है कि अंधे भी कंठस्थ कर लेते हैं।
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