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धर्म है-स्वयं जैसा हो जाना
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और परमात्मा के सारे आनंद की वर्षा उस पर हो जाती है, जो प्रामाणिक रूप से स्वयं है।
तो लाओत्से की सारी चिंतना असाधारण व्यक्ति के लिए नहीं है। और दूसरी धार्मिक परंपराओं में असाधारण व्यक्ति का बड़ा मूल्य है। लाओत्से के लिए तो साधारण व्यक्ति का ही मूल्य है। ऐसे हो जाओ, जैसे हो ही नहीं । तुम्हारा पता भी किसी को क्यों चले ?
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तो यह प्रश्न सार्थक मालूम पड़ सकता है तथाकथित धार्मिक चिंतनाओं के संदर्भ में, जहां कहा जाता है: यह हो जाओ, यह हो जाओ, यह हो जाओ। व्यर्थ है तुम्हारा जीवन । तुम्हारा जीवन सदा व्यर्थ है। किसी और का जीवन सार्थक है; तुम वैसे हो जाओ।
लाओत्से कहता है, तुम सार्थकता हो स्वयं ! तुम हो; यह काफी है कि परमात्मा ने तुम्हें अंगीकार किया है। तुम हो; यह पर्याप्त है कि परमात्मा तुम्हारे पीछे खड़ा है; उतना ही जितना बुद्ध के, उतना ही जितना लाओत्से के । तुम्हें उतनी ही श्वास देता है, जरा सी भी कंजूसी नहीं है। तुम्हें उतनी ही हृदय की धड़कनें देता है, जरा सा भी भेदभाव नहीं है। तुम पर से सूरज जब गुजरता है, तो ऐसा नहीं कि अपनी किरणें सिकोड़ लेता है। और तुम्हारे पास से हवा जब गुजरती है, तो ऐसा नहीं कि संकोच कर लेती है कि कहां छोटे से आदमी के पास से गुजरना पड़ रहा है ! पूरा अस्तित्व तुम्हें उसी तरह अंगीकार करता है, जैसे किसी और को ।
लेकिन तुम ही अपने को अंगीकार नहीं करते, तब अस्तित्व भी क्या कर सकता है !
लाओत्से कहता है, असाधारण साधारण की बात ही बकवास है, तुलना ही व्यर्थ है, कंपेरिजन ही अर्थहीन है । कोई ऐसा है, कोई वैसा है; इनमें नीचे-ऊपर कोई नहीं है। भिन्नताएं हैं, श्रेष्ठताएं नहीं हैं जगत में ।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लें । जगत में श्रेष्ठताएं और हीनताएं नहीं हैं; जगत में भिन्नताएं हैं। बुद्ध तुमसे भिन्न हैं। ऊंचे-नीचे की बात बिलकुल फिजूल है। और अगर वे खिल सके हैं फूल की भांति, तो इसीलिए कि उनकी किसी कोई तुलना उनके मन में नहीं है। वे किसी से ऊंचे नहीं होना चाहते, किसी से नीचे नहीं होना चाहते। दूसरा उनकी दृष्टि में ही नहीं है। वे अपने को खोल लिए हैं।
और तुम्हारी तकलीफ यही है कि तुम्हें बुद्ध परेशान कर रहे हैं, महावीर परेशान कर रहे हैं, कृष्ण परेशान कर रहे हैं, क्राइस्ट परेशान कर रहे हैं। कैसे मैं कुछ और हो जाऊं, जो मैं नहीं हूं—यही नरक है। कैसे मैं वही हो जाऊं,
मैं हूं - यही स्वर्ग है । और जिस दिन यह खयाल ही मिट जाता है, यह होने की बात ही, बिकमिंग की बात ही मिट जाती है कि मैं कुछ हो जाऊं; जो हूं, हूं; जिस दिन बीइंग ही रह जाती है, उस दिन मोक्ष है।
लाओत्से तो साधारण आदमी के बड़े पक्ष में है। वह महामानवों के पक्ष में नहीं है। वह मनुष्य के पक्ष में है, विशेषणहीन मनुष्य के पक्ष में है; नोबडी, जिस पर कोई विशेषण नहीं, उसके पक्ष में है।
एक मित्र ने पूछा है कि हमारी सारी शिक्षा, सभ्यता और संस्कृति स्वभाव पर आवरण बन जाते हैं। तो क्या ऐसी शिक्षा नहीं हो सकती जो हमारे स्वभाव पर आवरण न बने, वरन उसके उदघाटन में सहयोगी हो जाए?
शिक्षा का अर्थ ही होता है, जो बाहर से दी जाए, कोई और दे । संस्कार का अर्थ यह होता है, बाहर से डाले जाएं, कोई डाले। तो गहरे अर्थ में सभी शिक्षाएं और सभी संस्कार स्वभाव पर आवरण बनेंगे। इतना ही हो सकता है कि कुछ आवरण बहुत जटिल हों, कुछ आवरण कम जटिल हों। इतना ही हो सकता है कि कुछ आवरण लोहे के बन जाएं और कुछ आवरण हवा के आवरण हों। आवरण तो होंगे ही।
इस बात को ठीक से समझ लें ।