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________________ धर्म है-स्वयं जैसा हो जाना 381 लाओत्से कहता है, अगर तुम साधारण अपने स्वभाव में जीओ, तो तुम उतना कर लोगे जितनी तुम्हारी जरूरत है। पशु-पक्षी भी कर लेते हैं। आदमी कुछ ऐसा कमजोर नहीं है। वे भी अपने लिए जुटा लेते हैं। लेकिन पशु करने से पीड़ित नहीं हैं। करते जरूर हैं, करने से पीड़ित नहीं हैं। कोई पशु कुछ होने की कोशिश में नहीं लगा है। सभी मोर एक जैसे मोर हैं। सभी तोते एक जैसे तोते हैं। अपना खा लेते हैं, पी लेते हैं, सो लेते हैं, गीत गा लेते हैं, बाच लेते हैं, आकाश में उड़ लेते हैं। कोई साधारण नहीं है, कोई असाधारण नहीं है। कोई छोटा नहीं है, कोई बड़ा नहीं है। करते तो वे भी हैं; लेकिन करने में कोई दौड़ नहीं है । और करने के पीछे सब कुछ लगा देने का कोई पागलपन भी नहीं है। आदमी भर पागल है। आदमी का करना महत्वपूर्ण हो गया है उसके विश्राम से भी ज्यादा । हम करते ही किसलिए हैं ? आदमी करता इसलिए है कि कभी विश्राम कर सके। और अंत यह होता है कि विश्राम का मौका ही नहीं आता और करते-करते ही समाप्त हो जाता है। लक्ष्य क्या है ? डायोजनीज विश्राम कर रहा है अपनी रेत में पड़ा हुआ । नग्न है। सिकंदर उससे मिलने गया है। और सिकंदर कहता है कि इतनी मौज! इतना आनंद! फिर भी मैं पूछता हूं कि मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकूं, तो मुझे कहो। डायोजनीज ने कहा कि थोड़ा हट कर खड़े हो जाओ। सूरज की रोशनी आती थी, तुम बाधा बन गए हो। और ज्यादा तुम क्या कर सकोगे ? हम बड़े मजे में थे, रोशनी पड़ती थी सुबह की ताजी, तुम जरा बीच में आ गए। जरा हट जाओ। सिकंदर को बड़ी मुश्किल मालूम पड़ी। वह सोचता था कुछ करके दिखाएगा डायोजनीज को कर सकता था, धन के अंबार लगा सकता था । और डायोजनीज ने क्या मांगा ? सिकंदर ने कहा, डायोजनीज, तुझे पता नहीं कि मैं कौन हूं! मैं हूं महान सिकंदर; कुछ मांग ले। डायोजनीज ने कहा, तुम्हारी बड़ी कृपा है कि तुम हट गए। इससे बड़ी और क्या बात हो सकती है कि मेरे और सूरज के बीच अब कोई भी नहीं है । यह आवश्यकता वाला आदमी है, वासना वाला नहीं। इतनी आवश्यकता थी, इतनी जरूरत थी कि बीच से हट जाओ। बात खतम हो गई। ये पक्षियों जैसा जी रहा है यह आदमी उतने ही निसर्ग में, उतनी ही सरलता में । सिकंदर से डायोजनीज पूछता है, क्या इरादे हैं? सिकंदर कहता है, दुनिया जीतूं ! दुनिया जीतना चाहता हूं, सारी दुनिया जीतना चाहता हूं। डायोजनीज पूछता है, फिर क्या करोगे ? सिकंदर कहता है, फिर विश्राम करूंगा । और डायोजनीज खूब खिलखिला कर हंसता है। सिकंदर पूछता है, क्यों हंसते हो? डायोजनीज ने कहा, हम अभी विश्राम कर रहे हैं। विश्राम करने के लिए दुनिया जीतना, हमें कुछ समझ नहीं आया। अगर विश्राम ही लक्ष्य है, तो डायोजनीज अभी विश्राम कर रहा है। और दुनिया जीतने का इससे कोई संबंध नहीं है। लेकिन सिकंदर, तुम भूल हो, विश्राम तुम कर न सकोगे। क्योंकि तुम्हें गणित का ही पता नहीं है। जिसे विश्राम करना है, वह दुनिया जीतने क्यों जाएगा ? क्योंकि अगर दुनिया जीत कर ही विश्राम हो सकता होता, तो डायोजनीज विश्राम कैसे करता ? कोई संबंध नहीं है, कोई कार्य-कारण का संबंध नहीं है। और मैं तुमसे कहता हूं कि तुम कभी विश्राम न कर सकोगे । और तुम सिर्फ भ्रम में हो कि विश्राम करूंगा। तुम मर जाओगे ऐसे ही दौड़ते-दौड़ते। में और सिकंदर ऐसे ही दौड़ते-दौड़ते मर गया । हम सब भी सोचते हैं, कभी विश्राम करेंगे। सोचते हैं, ये ये शर्तें पूरी हो जाएं, तो फिर हम विश्राम करेंगे। ऐसा भी हो सकता है कि वे शर्तें पूरी हो जाएं। लेकिन तब तक काम करना आपके लिए ऐसी विक्षिप्तता हो चुकी होगी कि जिस दिन आपका बिस्तर बन कर तैयार होगा, उस दिन तक आपकी नींद खो गई होगी। और जब तक आप भोजन जुटा पाएंगे, तब तक भूख मर चुकी होगी। क्योंकि भोजन जुटाने में आदमी भूख की कुर्बानी चढ़ा देता है ।
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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