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ताओ उपनिषद भाग २
लाओत्से कहता है, अपने को स्वीकार कर लो। अस्वीकृति में ही सारा उपद्रव है। और हममें से कोई अपने को स्वीकार नहीं करता, कोई नहीं। और जो जितना अपने को अस्वीकार करता है, उतना बड़ा महात्मा मालूम होता है। हममें से कोई अपने को स्वीकार नहीं करता। हम सब अपने दुश्मन हैं। हमारा बस चले, तो हम सब काट-पीट कर अलग कर दें अपने में से।
हम सबको दूसरे स्वीकार हैं, स्वयं की कोई स्वीकृति नहीं है। और जिनको हम स्वीकार कर रहे हैं, जरा उनकी तरफ झांक कर देखो। वे भी अपने को स्वीकार नहीं किए हुए हैं; वे दूसरों को स्वीकार कर रहे हैं। अगर एक-एक आदमी का मन खोल कर सामने रखा जा सके, तो एक ही बीमारी मिलेगी कि कोई अपने को स्वीकार नहीं करता है-कोई! और जो अपने को स्वीकार करता है, उसकी फिर कोई बीमारी नहीं है। क्योंकि जहां तुलना नहीं है, वहां दीनता कैसी, हीनता कैसी, श्रेष्ठता कैसी? असाधारण कौन, साधारण कौन?
वह तो अच्छा है कि हम आदमियों से ही तुलना करते हैं। नहीं तो गुलाब में गुलाब का फूल खिला है, हम छाती पीटें कि हममें अब तक एक फूल भी नहीं खिला! बड़े हीन हो गए! आकाश में चांद निकला है; हम आंसू बहा रहे हैं कि ऐसी रोशनी कभी हमारे चेहरे से न निकली! वह तो अच्छा है कि हमने अपनी बीमारी आदमी तक ही सीमित रखी है। अगर हम फैला लें, तो हमें कोई भी दीन-हीन कर जाएगा। एक छोटी सी तितली उड़ रही होगी, और उसके पंखों का रंग हमें हीन कर जाएगा। एक हिरण दौड़ रहा होगा, और उसकी गति और उसकी चमक हमें दीन कर जाएगी। सड़क के किनारे एक छोटा सा पत्थर चमक रहा होगा वर्षा में, और उसकी चमक हमें फीका कर जाएगी। तो अच्छा है कि हम आदमियों से ही तौलते हैं।
तौलेंगे, तो दीन हो जाएंगे। दोहरी बीमारी है। खुद को माने बैठे हैं शिखर; और फिर तौलते हैं, तो दीनता पैदा होती है। तो दो स्थितियां तनाव की बन जाती हैं। गड्ड दिखाई पड़ता है वस्तुतः और कल्पना में दिखाई पड़ता है शिखर। दोनों के बीच कहीं कोई तालमेल नहीं बैठता। जीवन इसी में टूट जाता है।
लाओत्से कहेगा कि साधारण हो, इससे शुभ और कुछ भी नहीं। स्वीकार कर लो अपनी साधारणता।
लेकिन हर कोई हमें समझा रहा है, कुछ बन कर दिखाओ! यह बन जाओ, वह बन जाओ; ऐसे बन जाओ, वैसे बन जाओ। बचपन से मां-बाप पीछे पड़े हैं, कुछ बन कर दिखाओ। शिक्षक पीछे पड़े हैं, कुछ बन कर दिखाओ। क्या साधारण ही रह जाओगे? संसार में आए हो, कुछ करके दिखाओ।
बड़े आश्चर्य की बात है, जिन्होंने करके दिखाया है, वे कब्रों में पड़े हैं वैसे ही। जिन्होंने नहीं करके दिखाया, वे भी विश्राम कर रहे हैं कब्रों में। और कबे कोई फर्क नहीं करतीं कि तुमने कुछ करके दिखाया था कि कुछ करके नहीं दिखाया था। और करके जिन्होंने दिखाया है, क्या है उसका परिणाम? सपने में जैसे हम कुछ कर लें, ऐसा ही जीवन में कुछ करना है। सुबह जाग कर सब मिट जाता है। पानी पर खींची गई रेखाओं सा सब खो जाता है। लेकिन हर एक पीछे पड़ा है, कुछ करके दिखाओ। क्योंकि करने को हम मानते हैं कोई गुण है।
लाओत्से कहता है, न करना गुण है।
इसका यह मतलब नहीं कि लाओत्से कहता है, कुछ करो मत। इसका यह मतलब नहीं है कि रोटी कमाने मत जाओ। इसका यह मतलब नहीं है कि नौकरी मत करो। इसका यह मतलब नहीं है कि हाथ-पैर मत हिलाओ। लाओत्से कहता है कि न करने में ठहरे रहो। न करना तुम्हारा केंद्र रहे। और तुम्हारा जो करना निकले, वह करने की दौड़ से नहीं, न करने की स्वीकृति से निकले। तो तुम्हारी वासनाएं अपने आप कम होंगी। आवश्यकताएं रह जाएंगी, वासनाएं खो जाएंगी। जरूरतें रह जाएंगी। और आदमी की जरूरत इतनी कम है कि जिसका कोई हिसाब नहीं; और आदमी की वासना इतनी ज्यादा है कि जिसका कोई अंत नहीं।
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