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ताओ उपनिषद भाग २
समझता हूं कि वह ऋण से दबे हुए आदमी तुम ही हो। मुल्ला ने कहा, आप बिलकुल गलत समझे। इस बार वह आदमी मैं नहीं हूं। उस आदमी ने कहा कि मैं खुश हुआ यह बात सुन कर। और उसने दो रुपए मुल्ला को भेंट किए। और जब मुल्ला फिर सीढ़ियां उतर रहा था, तब उसने कहा, क्या मैं पूछ सकता हूं कि पिछली बार तो मैं समझ गया कि तुम्हारी उदारता की प्रेरणा कहां से निकली थी; इस बार तुम्हारी इतनी उदारता और इतनी दया और इतनी सेवा का क्या कारण है? मुल्ला ने कहा, इस बार ऋणदाता मैं हूं। ऋणी कोई और है गरीब, ऋणदाता मैं हूं। और वह बिलकुल चुका नहीं पा रहा है पैसे, उसके लिए पैसे इकट्ठे कर रहा हूं।
___आप समझे? पहली दफा मैं था ऋणी, दबा जा रहा था ऋण में, किसी के पैसे चुकाने थे; इसलिए मांगने आया था। इस बार मैं ऋणदाता है; कोई और ऋण से दबा जा रहा है। उसको मेरे पैसे चुकाने हैं और चुका नहीं पा रहा है। उसके लिए पैसे इकट्ठे कर रहा हूं।
अगर आदमी की हम सेवाओं के भीतर भी प्रवेश करें, तो हम स्वार्थ पाएंगे। हम जैसे जीते हैं, वह स्वार्थ है।
लेकिन एक आदमी बाजार, संसार, गृहस्थी, सब छोड़ कर हट गया। जंगल में खड़ा है एक वृक्ष के नीचे। उसका क्या स्वार्थ है? उसकी तो कोई सेल्फिशनेस नहीं है। वह तो हट ही गया संसार से। लाओत्से उसके लिए कह रहा है यह सूत्र कि जो आत्मा को खोजने गया है, वह भी मैं अपने को खोज लूं, मैं अपने को पा लूं, मेरा मोक्ष हो जाए, मैं आनंद को उपलब्ध हो जाऊं, मेरे जीवन में दुख न रह जाए, यह भी सेल्फसेंटर्डनेस है। यह भी स्वार्थ है। यह पारलौकिक स्वार्थ होगा; लेकिन यह स्वार्थ नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। यह आदमी भी स्वार्थी है, यह आदमी भी अपनी ही फिक्र में लगा है।
लाओत्से कहता है, इसको भी छोड़ दो; क्योंकि यह भी स्वयं को जानने में बाधा है।
क्यों बाधा है? अगर स्वयं के जानने में भी मेरा कोई इनवेस्टमेंट है, अगर मुझे लगता है कि स्वयं को जान कर मैं आनंद को पा लूंगा, तो मेरी उत्सुकता स्वयं को जानने में नहीं, आनंद को पाने में है-एक बात। अगर आनंद मुझे स्वयं को बिना जाने मिल जाए, तो मैं इस उपद्रव में कभी नहीं पडूंगा। या कोई अगर मुझसे यह कह दे कि स्वयं को तो तुम जान लोगे, लेकिन आनंद नहीं पा सकोगे स्वयं को जानने से...।
सुना है मैंने, जुन्नून एक सूफी फकीर अपने गुरु के पास गया। उसके गुरु ने पूछा कि तुम किस लिए आए हो, एक प्रश्न में ठीक-ठीक मुझे कह दो। ज्यादा बातचीत मैं पसंद नहीं करता हूँ। तुम एक ही प्रश्न में अपनी सारी जिज्ञासा मुझे कह दो। जुनून रात भर सोचता रहा। सुबह गुरु ने बुलाया। जुनून ने कहा कि मैं अपने को जानना चाहता हूं। जुनून के गुरु ने कहा, अगर अपने को जानना अत्यंत कष्टपूर्ण हो, और अपने को जान कर अगर तुम दुख में पड़ जाओ, तो भी तुम अपने निर्णय पर दृढ़ हो? जुन्नून ने कहा, मैं तो आनंद पाने के लिए स्वयं को जानना चाहता हूं। तो उसके गुरु ने कहा, तुम फिर से सोच कर आओ। तब तुम कहो कि मैं आनंद पाना चाहता हूं। स्वयं को जानना चाहता हं, यह क्यों कहते हो? तुम्हारा लक्ष्य अगर आनंद को पाना है और अगर आनंद बिना स्वयं को जाने मिल सकता हो. तो स्वयं को जानने से तुम्हें क्या प्रयोजन है?
नीत्शे ने तो यहां तक कहा है कि लोग धर्मों के चक्कर में इसीलिए पड़े हैं कि उनको खयाल है कि धर्म से आनंद मिल जाएगा। न परमात्मा से किसी को मतलब है, न आत्मा से किसी को मतलब है, न सत्य से किसी को मतलब है। अगर लोगों को पता चल जाए कि परमात्मा और आनंद का कोई लेना-देना नहीं है, तो संसारी और धार्मिक आदमियों में फर्क खोजना मुश्किल हो जाए। जिस तरफ संसारी दौड़ रहे हैं, उसी तरफ धार्मिक भी दौड़ने लगें। अभी अगर वे विपरीत दौड़ते दिखाई पड़ते हैं, तो दिशाओं में फर्क हो, लक्ष्यों में फर्क नहीं है-आनंद! सांसारिक सोचता है, इससे आनंद मिलेगा। एक आदमी धन इकट्ठा कर रहा है; क्योंकि सोचता है, धन इकट्ठा करने
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