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आध्यात्मिक वासना का त्याग व सरल स्व का उदघाटन
वह जो स्वाद है, झूठा है। वह स्वाद सच्चा नहीं है। भीतर का स्वाद भी झूठा हो सकता है। इसीलिए लाओत्से कहता है कि सहज स्व का आलिंगन करना। भीतर का स्वाद भी झूठा हो सकता है।
आप किसी महावीर के प्रभाव में आ गए। और महावीर जैसे व्यक्तियों का प्रभाव तो है ही। उनसे प्रभावित हो जाना जरा भी कठिन नहीं है। उनसे प्रभावित न होना ही कठिन है। फिर उनका आनंद और उनका संगीत और उनकी सुगंध, उस सब में डूब गए। फिर उनके शब्द, वे पकड़ लिए। फिर उन शब्दों को पकड़ कर आप भीतर गए। आपको भी वही स्वाद आ सकता है। लेकिन वह स्वाद सच्चा नहीं होगा। वह स्वाद काफी का ही स्वाद है। वह सीख लिया है आपने। वे शब्द आपके भीतर गूंज गए हैं। वह महावीर की प्रतिमा आप में प्रतिष्ठित हो गई है। महावीर का भाव आपको पकड़ गया। आप उसी सम्मोहन में जी लेंगे। लेकिन वह अनुभव आत्म-अनुभव नहीं है। महावीर भी कहते हैं कि वह अनुभव आत्म-अनुभव नहीं है। महावीर ने अपने शिष्यों से कहा है कि जब तक तुम मुझे न छोड़ दो, तब तक तुम स्वयं को न पा सकोगे।
मुझे छोड़ने का क्या अर्थ है महावीर का? अर्थ है कि मेरे शब्द तुम्हारे लिए प्रेरणा तो बनें, लेकिन तुम्हारे लिए दृष्टि न बन जाएं। मेरे शब्द तुम्हारी प्यास तो जगाएं, लेकिन मेरे शब्द तुम्हारे लिए जल न बन जाएं। इस फर्क को ठीक से समझ लेना जरूरी है। मेरे शब्द तुम्हारे लिए प्यास तो जगाएं, लेकिन मेरे शब्द तुम्हारे लिए जल न बन जाएं। कहीं ऐसा न हो कि मेरे शब्दों का ही जल लेकर तुम तृप्त हो जाओ। तो तुम अपने जल से वंचित ही रह जाओगे।
तो आध्यात्मिक जीवन में प्रभावित होने का भी मूल्य है और अप्रभावित बने रहने का भी मूल्य है। प्यास जगने के लिए तत्परता भी चाहिए; और शब्द पकड़ न जाएं, शब्द बोझ न बन जाएं, इसकी जागरूकता भी चाहिए।
लाओत्से कहता है, 'सजग, सहज अपनी आत्मा का आलिंगन करो। अपनी स्वार्थपरता त्यागो, अपनी वासनाओं को क्षीण करो।'
__यहां स्वार्थपरता का क्या अर्थ होगा? यहां वही अर्थ नहीं है, जो आमतौर से हम सेल्फिशनेस का लेते हैं। क्योंकि उन चीजों को तो वह पहले ही छोड़ने को कह चुका है। जब बुद्धिमत्ता छोड़ने को कह चुका और जब उपयोगिता छोड़ने को कह चुका, तो स्वार्थपरता का अब वही अर्थ नहीं है, जो हम लेते हैं। यहां स्वार्थपरता का गहरा अर्थ है। हमारी स्वार्थपरता तो उपयोगिता में ही छूट गई। वह जो यूटिलिटेरियन, हर चीज में उपयोग देखने की दृष्टि थी, वह छूट गई, तो हमारी स्वार्थपरता छूट गई। यहां सेल्फिशनेस का क्या अर्थ है? अगर हम यहां ठीक से समझें, तो यहां अर्थ है : सेल्फ-सेंटर्डनेस, स्व-केंद्रितता। स्वार्थपरता अर्थात स्व-केंद्रितता।
साधारण आदमी के जीवन की पीड़ा यही है कि वह हमेशा स्वार्थ से जीता है। अगर वह प्रेम भी करता है किसी को, तो उसका कोई मतलब होता है। उसका मतलब ही उसके जीवन को नष्ट कर देता है। हम सब मतलबी हैं। और हमारे मतलब के बड़े सूक्ष्म रास्ते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन एक नगर के धनपति के द्वार पर दस्तक दे रहा है। धनपति बाहर आया। मुल्ला ने कहा, एक आदमी बड़ी तकलीफ में है, ऋण से दबा जा रहा है, मरा जा रहा है; कुछ सहायता करो! उस आदमी ने एक रुपया निकाल कर नसरुद्दीन को दिया और कहा कि अच्छे खयाल हैं, नेक इरादे हैं, जरूर उसकी सहायता करो। मुल्ला जब सीढ़ियां उतर रहा था, तब उस अमीर ने कहा कि एक मिनट, क्या मैं पूछ सकता हूं वह कौन आदमी है जो ऋण से दबा जा रहा है? मुल्ला ने कहा, मैं ही।
पंद्रह दिन बाद मुल्ला ने फिर उसी आदमी के दरवाजे पर दस्तक दी। उसने मुल्ला को बड़े गौर से देखा और व्यंग्य किया कि मालूम होता है, फिर कोई आदमी ऋण से दबा जा रहा है। मुल्ला ने कहा कि बिलकुल ठीक समझे आप। बहुत गरीब आदमी है, उस आदमी ने कहा। मुल्ला ने कहा, बिलकुल ठीक समझे आप। उसने कहा, और मैं
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