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ताओ उपनिषद भाग २
लेकिन हम उसे भी खोजने बाहर जाते हैं। अगर हमें आत्मा भी खोजनी है, तो भी हम बाहर जाते हैं। हमें अपने को भी खोजना है, तो भी हम किसी से पूछते हैं। अपना पता भी हमें दूसरे से ही पूछना पड़ता है। अपनी खबर भी हमें दूसरे से ही पूछनी पड़ती है। इससे ज्यादा बेहोशी और क्या हो सकती है?
लेकिन जब भी हम दूसरे से पूछने जाएंगे, हमारे स्व का जो अनुभव है, वह मिश्रित हो जाएगा। और जब भी हम दूसरे को मान लेंगे...। और दूसरे को मानने की बड़ी इच्छा होती है अज्ञान में; क्योंकि सस्ता मिलता है ज्ञान, मुफ्त मिलता है। कोई दे देता है और हम ले लेते हैं। अपना ज्ञान पाना हो, तब तो श्रम और तप और यात्रा करनी पड़ती है। किसी का कहा हुआ, तो कोई अड़चन नहीं। मुफ्त मिल जाता है, हम स्वीकार कर लेते हैं।
यह जो दूसरे से पूछ-पूछ कर हमने अपने संबंध में जान रखा है, यह काम नहीं पड़ेगा, अगर सत्य की खोज करनी है। इसे हटा ही देना पड़ेगा। निर्भार हो जाना जरूरी है समस्त धारणाओं से। और भीतर ऐसे प्रवेश करना है, जैसे एक अचानक आपकी नौका डूब गई और आप एक अज्ञात द्वीप पर पहुंच गए, जहां का आपको कुछ भी पता नहीं है, कोई नक्शा आपके पास नहीं है। एक-एक कदम रख कर ही खोजना पड़ेगा कि क्या है? जहां का आपको कोई भी पता नहीं है, ऐसे अज्ञात द्वीप पर राबिन्सन क्रूसो की तरह आप गिर गए। एक-एक कदम रख कर ही पता चलेगा-क्या है?
सहज स्व का अर्थ है : वहां पहुंचे बिना नक्शे लिए, बिना शास्त्र लिए, अज्ञात द्वीप पर पहुंच जाएं और एक-एक कदम चलें और खोजें, तो ही जैसी स्थिति है भीतर, वह प्रतीत होगी, उसका स्वाद मिलेगा। अन्यथा बड़े मजे हैं, स्वाद भी सजेस्ट किए जा सकते हैं। स्वाद भी झूठे हो सकते हैं। स्वाद भी बाहर से निर्मित किए जा सकते हैं। __अगर आपने कभी किसी हिप्नोटिस्ट को प्रयोग करते देखा हो...। न देखा हो, तो घर में अपने बच्चों पर प्रयोग करके देख सकते हैं। एक बच्चे को सुला दें और पांच मिनट उसको कहते रहें कि वह गहरी बेहोशी में डूब रहा है, गहरी बेहोशी में डूब रहा है। बच्चे तो सरल होते हैं; पांच मिनट में वह मान लेगा कि डूब रहा है, डूब रहा है; वह डूब जाएगा। और बच्चे ही नहीं, सौ में से तीस प्रतिशत लोग सरलता से सम्मोहित हो जाते हैं। अगर आप दस
आदमियों को पकड़ कर सम्मोहित करें, तो तीन को सम्मोहित करने में कोई भी सफल हो जाएगा। कोई भी। इसमें किसी कला की और किसी शक्ति की कोई जरूरत नहीं है। दस में से तीन आदमी सम्मोहित होने को तैयार ही हैं।
एक बच्चे को लिटा दें और कहें कि बेहोश होता जा रहा है। पांच मिनट में वह बेहोश हो जाएगा। फिर उसके मुंह के पास प्याज ले जाएं और कहें कि एक सेव का टुकड़ा तुम्हारे मुंह में डाल रहे हैं, बहुत स्वादिष्ट है। और प्याज उसके मुंह में डाल दें। और वह बच्चा कहेगा कि बहुत स्वादिष्ट सेव है। उसको प्याज की बास भी नहीं आएगी। उसे स्वाद सेव का ही आएगा।
लेकिन आप सोचते होंगे कि यह तो खैर सम्मोहन की बात हई। लेकिन आपने जब कभी पहली दफा सिगरेट पी थी, तो आपको कैसा स्वाद आया था, खयाल है? लेकिन जब इतने लोग पी रहे हैं, तो जरूर स्वाद अच्छा आ ही रहा होगा। यह सम्मोहन है। आपने जब पहली दफा काफी पी थी, तो आपको स्वाद कैसा आया था?
लेकिन स्वाद को पैदा करने वाले कहते हैं कि स्वाद कल्टीवेट करना होता है। काफी पहली दफा पीएंगे, तो तिक्त लगेगी ही, कड़वी लगेगी ही। इसमें काफी का कसूर नहीं है; आप असंस्कृत हैं, अनकल्चर्ड हैं। स्वाद कल्टीवेट हो जाएगा। पीते रहें! महीने, दो महीने में काफी के बिना जीना मुश्किल हो जाएगा। काफी स्वादिष्ट मालूम होने लगेगी। क्या हुआ महीने भर में बार-बार पीकर? आपने अपने को ही सम्मोहित कर लिया। और काफी के एडवरटाइजमेंट करने वालों ने आपको सम्मोहित कर दिया। और आपसे पहले जो सम्मोहित हो चुके हैं, उन्होंने भी आपको दीक्षा में सहायता दी और आपको सम्मोहित कर दिया। अब आपको काफी बड़ी स्वादिष्ट मालूम पड़ती है।
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