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आध्यात्मिक वासना का त्याग व सरल स्व का उद्घाटन
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से आनंद मिलेगा । एक आदमी प्रार्थना कर रहा है; क्योंकि सोचता है, प्रार्थना करने से आनंद मिलेगा। ये दोनों आदमी कितने ही उलटे खड़े दिखाई पड़ें, ये उलटे नहीं हैं, ये विपरीत नहीं हैं। इन दोनों की बुद्धि बिलकुल एक सी है । और इनकी यात्रा में जरा भी फर्क नहीं है।
लाओत्से कहता है, स्वार्थपरता छोड़ो। अगर तुम स्वयं को जानना चाहते हो और सरल, सहज स्व का अनुभव करना चाहते हो, तो इस स्वयं को जानने में कोई आकांक्षा न हो कि मैं यह पा लूंगा, कि मैं यह पा लूंगा, कि मैं यह पा लूंगा। इसमें पाने का कोई खयाल न हो। इसमें तुम्हारा निजी कोई हित का खयाल न हो।
यह बड़ा कठिन है। हमारे स्वार्थ को संसार से हटा कर मोक्ष पर लगाना कठिन नहीं है। हमारे लोभ को धन से हटा कर धर्म पर लगाना जरा भी कठिन नहीं है। सरल है। बल्कि सच तो यह है कि जितना बड़ा लोभी हो, उतनी जल्दी धार्मिक हो जाता है। क्योंकि बहुत जल्दी उसे समझाया जा सकता है कि यह तुम क्या ठीकरे इकट्ठे कर रहे हो सोने-चांदी के ? जब मरोगे, तो ये काम न पड़ेंगे। अगर असली संपदा चाहिए, तो दान करो; जो मरने के बाद भी काम पड़ेगी। अगर आप छोटे-मोटे लोभी हैं, तो आप कहेंगे, चलेगा; मरने तक भी हम तृप्त हैं, मरने के बाद का देखेंगे। अगर आप बड़े लोभी हैं और ग्रीड बड़ी भयंकर है, तो आप जरूर हिसाब लगाएंगे कि मरने के बाद अगर ये काम नहीं पड़ते, तो इनमें से कुछ को उन सिक्कों में बदल लो, जो मरने के बाद काम पड़ते हैं । दान कर दो। बड़े लोभी बड़ी जल्दी धार्मिक हो जाते हैं। कंजूस बड़ी जल्दी धार्मिक हो जाते हैं। इससे उनमें कोई फर्क नहीं पड़ता; सिर्फ उनके लोभ को एक नया आयाम और मिल जाता है, और विस्तार हो जाता है।
लेकिन धर्म के जगत में वे ही प्रवेश करते हैं, जिनका कोई भी लोभ नहीं है। जिनको इतना भी लोभ नहीं है कि आनंद भी मिलेगा, कि मोक्ष मिलेगा, कि स्वर्ग मिलेगा।
लाओत्से कहता है, स्वार्थपरता छोड़ो।
यहां स्वार्थपरता उस दूसरे तल की है, क्योंकि आत्मज्ञान के साथ इसकी बात की जा रही है। यह भी मत सोचो कि तुम्हें आनंद मिलेगा। कौन जानता है— मिले, न मिले ? कौन कह सकता है, क्या मिलेगा? कोई पक्का नहीं है। कोई आश्वासन नहीं दे सकता। कोई सुरक्षा नहीं है, कोई गारंटी नहीं है। तुम सिर्फ इसीलिए जानने चलो कि तुम हो, और अपने को न जानना बड़ी एब्सडिटी है, बड़ी बेहूदगी है। मैं हूं और मुझे पता नहीं कि मैं कौन हूं! सिर्फ इसीलिए तुम जानने चलो कि तुम्हें पता ही नहीं कि तुम कौन हो और तुम हो। इसमें कोई और स्वार्थ मत जोड़ो। इसमें यह मत कहो कि जान लूंगा, तो आनंद मिलेगा; जान लूंगा, तो अमृतत्व मिल जाएगा; जान लूंगा, तो फिर कोई दुख न रह जाएगा; जान लूंगा, तो मोक्ष की परम शांति मिलेगी; जान लूंगा, तो निर्वाण मिल जाएगा।
न, जानने के साथ कुछ मिलने को मत जोड़ो। क्योंकि जो मिलने को जोड़ रहा है, वह जान ही न पाएगा। क्योंकि जिसकी अभी आकांक्षा कुछ पाने की लगी है, वह अभी अपने से बाहर ही घूमेगा, भीतर नहीं आ सकता । भीतर तो वही आता है, जिसकी कोई आकांक्षा नहीं रह गई।
इसलिए लाओत्से कहता है, 'स्वार्थपरता त्यागो, अपनी वासनाओं को क्षीण करो।'
निश्चित ही ये वासनाएं आध्यात्मिक आदमी की वासनाएं हैं। सांसारिक आदमी की वासनाएं तो समाप्त हो गईं पहले सूत्रों में । ये आध्यात्मिक आदमी की वासनाएं हैं। स्प्रिचुअल डिजायर्स, आध्यात्मिक वासनाएं - यह शब्द उलटा मालूम पड़ेगा, कंट्राडिक्टरी मालूम पड़ेगा। क्योंकि हम कभी सोचते नहीं कि आध्यात्मिक वासना भी होती है ! आध्यात्मिक वासना भी होती है। और जब तक आध्यात्मिक वासना है, तब तक अध्यात्म का कोई जन्म नहीं होता है। जिनको हम संन्यासी कहते हैं, उनमें अधिक लोग सांसारिक वासना छोड़ देते हैं, आध्यात्मिक वासना पकड़ लेते हैं। वास्तविक संन्यासी वही है, जिसकी कोई वासना नहीं है—न सांसारिक, न आध्यात्मिक |