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ताओ उपनिषद भाग २
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चिल्लाओ ईश्वर के दरवाजे पर कि मुझे क्षमा कर दो, मुझसे भूल हो गई; कोई चीज क्षमा नहीं की जा सकती। अगर न्याय है ईश्वर, तो प्रार्थनाएं व्यर्थ हैं, कोई सार नहीं है उनमें।
और अगर ईश्वर दया है, तो चरित्र बिलकुल व्यर्थ है, प्रार्थनाएं काफी हैं। तब सारी ताकत प्रार्थना में लगानी चाहिए । फिर फिजूल की बातों में नहीं पड़ना चाहिए कि चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, बुरा मत करो । यह सब नासमझी है। इतनी ताकत से तो परमात्मा की दया ही पाई जा सकती है। यह सब भी करो और प्रार्थना करो।
उमर खय्याम ने कहा है । उमर खय्याम से एक मौलवी ने गांव के कहा है कि उमर खय्याम, अब तुम बूढ़े हो गए, अब बंद करो यह शराब पीना ! अब कुछ तो खयाल करो कयामत का; याद करो उस दिन का, जब जजमेंट होगा, निर्णय होगा और परमात्मा के सामने खड़े होओगे । उमर खय्याम तो पीए था; हाथ में प्याली लिए था । उसने धीमे से आंखें खोलीं और उसने कहा कि मुझे उसके रहमवर होने का पक्का भरोसा है। वह परमात्मा दयालु है । और तुम मरते वक्त मुझमें अश्रद्धा पैदा मत करो। मेरी श्रद्धा मजबूत है। यह छोटा सा प्याला और यह थोड़ी सी शराब और यह तुच्छ सा उमर खय्याम, इसको वह माफ न कर सकेगा, तो बड़े पापियों का क्या होगा ? परमात्मा दयालु है । दया अगर है, तो न्याय असंभव है। अगर न्याम है, तो दया असंभव है। दोनों चीजें साथ नहीं हो सकतीं। और दुनिया के अधिक धर्म परमात्मा को दयालु और न्यायप्रिय इकट्ठा मानते हैं।
लाओत्से कहता है, न्याय को हटाओ, प्रेम काफी है।
यह भी थोड़ी सोचने जैसी बात है कि न्याय आता ही तब है, जब प्रेम नहीं होता । न्याय की पूरी दृष्टि ही प्रेम अभाव में जन्मती है। इसे हम ऐसा समझें। आप अपने पिता के पैर दाब रहे हैं। आप कहते हैं, ड्यूटी है, कर्तव्य है - पिता हैं । आप बूढ़ी मां की सेवा कर रहे हैं। आप कहते हैं, कर्तव्य है। लेकिन क्या आपने कभी खयाल किया कि कर्तव्य बहुत कुरूप शब्द है, ड्यूटी बहुत अग्ली शब्द है। क्योंकि कर्तव्य का मतलब यह हुआ कि करने योग्य है, करना चाहिए, इसलिए कर रहा हूं; लेकिन हृदय करने में बिलकुल नहीं है। मां है, बूढ़ी है, अपनी ही मां है, इसलिए अस्पताल ले जा रहे हैं। कर्तव्य हैं।
लेकिन जब आप अपनी प्रेयसी को अस्पताल ले जा रहे हैं, तब आप कहते हैं कि कर्तव्य है ?
प्रेम है, तो कर्तव्य बिलकुल नहीं पैदा होगा। प्रेम नहीं है, तो कर्तव्य पैदा होगा। कर्तव्य सब्स्टीट्यूट है। जब प्रेम मर जाता तो वे ही चीजें जो प्रेम होता तो करते, वे फिर कर्तव्य के नाम से करनी पड़ती हैं। प्रेम होता, तो करने में होता आनंद। और जब कर्तव्य होता है, तो सिर्फ होता है एक बोझ, जिसे किसी भांति उतार देना है।
लाओत्से कहता है कि न्याय प्रेम का अभाव है। अगर प्रेम है लोगों में, तो अन्याय ही नहीं होगा और न्याय
की कोई जरूरत न पड़ेगी। अन्याय होता है, इसलिए न्याय की जरूरत पड़ती है। और लाओत्से कहता है, जब अन्याय होता ही है, तो तुम न्याय से कुछ हल न कर पाओगे । अन्याय न हो ! इसे हम ऐसा समझें । दो तरह की दवाएं हो सकती हैं। एक दवा, जिसको हम प्रिवेंटिव कहें। बीमार आप न हों, इसलिए दी जाती है। और एक दवा, जब आप बीमार हो जाते हैं, तब दी जाती है। एक बीमारी के पहले और एक बीमारी के बाद ।
लाओत्से कहता है, न्याय बीमारी के बाद की गई दवा है। अन्याय हो रहा है, इसलिए न्याय की जरूरत पड़ती है। लाओत्से कहता है, मैं तो उस धर्म की बात करता हूं कि अन्याय न हो, न्याय की जरूरत ही न रहे। इसलिए कहता है, न्याय को छोड़ो। क्यों? क्योंकि अगर न्याय छोड़ोगे, तो तुम्हें अन्याय दिखाई पड़ेगा। न्याय के धुएं में तुमने अन्याय को अच्छी तरह छिपा लिया है। और न्याय के नाम से अन्याय तो नहीं रुकता, अन्याय दिखाई नहीं पड़ता है।
लाओत्से का एक अनुयायी लीहत्जू कुछ दिनों के लिए एक राज्य का मंत्री हो गया था। पहला ही जो मुकदमा उसके हाथ में आया, एक आदमी ने चोरी की थी। बड़ी चोरी थी, और गांव के सबसे बड़े संपत्तिशाली आदमी के घर