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सिद्धांत व आचरण में नहीं, सरल-सहज स्वभाव में जीना
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लेकिन प्रेम संपदा नहीं है। प्रेम तो वैसे ही है, जैसे जीवन की और सब गहन क्रियाएं हैं। आप श्वास लेते हैं। जितनी ज्यादा श्वास लेते हैं, उतने जीवंत हो जाते हैं। जितने पैर चलते हैं, उतनी चलने की क्षमता बढ़ जाती है। जितनी आंख देखती है, उतनी देखने की क्षमता बढ़ जाती है। जितना आप प्रेम करते हैं, उतना प्रेम बढ़ जाता है। ये क्षमताएं हैं—विकासमान। ये कोई जड़ संपदाएं नहीं हैं कि इनमें कुछ कमी हो जाए। ऐसा मत सोचिए कि दौड़ेंगे, तो फिर आपकी चलने की क्षमता कम हो जाएगी, संपत्ति चुक जाएगी। जो जितना दौड़ेगा, उतना ज्यादा दौड़ सकेगा। जो जितना ज्यादा प्रेम करेगा, उतना ज्यादा प्रेम कर सकेगा। यह हर बार बढ़ता चला जाएगा। और हर बड़ी लहर और बड़ी लहर को जन्म दे जाएगी।
परमात्मा के चरणों तक तो वही आदमी पहुंच पाता है, जो इतना प्रेम करता है, इतना प्रेम करता है कि उसके प्रेम की लहरें उठती ही चली जाती हैं। और कोई उसके प्रेम को चुका नहीं पाता। सबको उसका प्रेम पार करके निकल जाता है। सब उसके प्रेम में नहा जाते हैं। लेकिन उसका प्रेम चुकता नहीं, और बढ़ता जाता है। एक दिन वह प्रेम विराट के चरणों को भी स्पर्श कर लेता है। जो कंकड़ छोटा सा हमने फेंका था सागर में, वह किसी दिन सागर के अनंत तटों को भी स्पर्श कर सकती है उसकी लहर। लेकिन वह कंकड़ डर जाए और सोचे कि छोटा हूं कंकड़, अपनी ताकत कितनी, बिसात क्या, एकाध-दो लहरें उठ भी सकती हैं, बचा कर रखू; तभी उठाऊंगा, जब तट पर पहुंच जाऊंगा। फिर वे लहरें कभी भी नहीं उठेगी।
लाओत्से कहता है, छोड़ो मानवता, छोड़ो न्याय।
ध्यान रहे, लाओत्से न्याय के बहुत खिलाफ है, जस्टिस! हैरानी लगती है। क्यों, न्याय के इतने क्यों खिलाफ है? हम तो कहते हैं, फलां आदमी बड़ा न्यायपूर्ण है। और हमें खयाल भी नहीं है...।
इसे थोड़ा हम समझें। ईसाई कहते हैं कि ईश्वर न्यायपूर्ण, प्रेमी, दयालु है। लाओत्से बहुत हंसेगा, अगर उसको पता चल जाए। क्योंकि लाओत्से कहता है कि जो प्रेमी है, वह दयालु नहीं हो सकता। और जो प्रेमी है, वह न्यायविद भी नहीं हो सकता, न्यायी भी नहीं हो सकता।
इसे हम थोड़ा समझें। अगर परमात्मा न्यायपूर्ण है, जस्ट है, तो दयालु नहीं हो सकता। कैसे दयालु होगा? तब जिसको जो दंड मिलना चाहिए, वह मिलना चाहिए; दया का कोई सवाल नहीं है। जिसको नरक में पड़ना चाहिए, पड़ना चाहिए; दया का कोई सवाल नहीं है। और अगर परमात्मा दयालु है और वह आदमी भी स्वर्ग में प्रवेश कर जाता है जिसे नरक में होना चाहिए था, तो फिर जो नरक में पड़ गए हैं, उनके साथ बड़ी अदया हो रही है। तब तो इसका मतलब यह हुआ कि परमात्मा प्रशंसकों को, खुशामदियों को स्वर्ग में जगह दे देता है।
जैनियों ने इसीलिए परमात्मा को बीच से हटा दिया है। वे कहते हैं, सीधा कर्म! नहीं तो बीच में गड़बड़ होगी। तुमने बुरा किया है, बुरा फल मिलेगा; कोई बीच में निर्णायक नहीं है, कर्म स्वयं ही अपना निर्णायक है। क्योंकि वे कहते हैं, अगर बीच में हम किसी व्यक्ति को रखें, तो कठिनाई होगी। क्योंकि व्यक्ति कभी दया भी खा सकता है, कभी प्रेम में भी पड़ सकता है। कभी रहम, कभी बेरहम हो सकता है। अपनों पर, परायों पर कुछ भेद हो सकता है।
और जैन कहते हैं कि अगर परमात्मा ऐसा है कि वह दया नहीं करता, कोई प्रेम नहीं करता, तो उसे बीच में रखने की जरूरत भी क्या है? फिर तो कानून काम करता है। आग में हाथ डालोगे, हाथ जल जाएगा। आग दया नहीं करती, प्रेम नहीं करती, न्याय भी नहीं करती। आग का तो एक जड़ नियम है; वह पूरा होता है। तो जैन कहते हैं, कर्म का नियम पूरा होता रहता है; कोई नियंता बीच में नहीं है।
एक लिहाज से ठीक बात है। नियंता को मानते हैं, तो फिर उसमें दो बातें समझ लें। अगर नियंता जस्ट है, न्याय ही उसका जीवन है, तो फिर दया असंभव है। और सब प्रार्थनाएं व्यर्थ हैं; स्तुति का कोई सार नहीं है। लाख
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