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ताओ उपनिषद भाग २
इसलिए अक्सर जो मानवतावादी हैं, जो कहते हैं पूरी मनुष्यता को प्रेम करते हैं, अगर उनके जीवन में तलाश करें, तो पाएंगे कि वे एक भी व्यक्ति को प्रेम करने में सफल नहीं हो पाए। और तब उन्होंने एक सपने को, एक शब्द को, एक आदर्श को प्रेम करना शुरू कर दिया। उस आदर्श के साथ, उस शब्द के साथ, स्वप्न के साथ कोई अड़चन नहीं है, कोई दुविधा नहीं है, कोई जटिलता नहीं है।
लेकिन एक बड़ा धोखा है; क्योंकि मानवता को प्रेम किया ही नहीं जा सकता, मनुष्यों को ही प्रेम किया जा सकता है। प्रेम तो एक यात्रा है। और प्रेम तो एक निखार है प्रतिपल, कसौटी है, एक आग है, जिसमें से गुजरना है। लेकिन मानवता है, वहां फिर कोई आग नहीं है। दूसरी तरफ कोई है ही नहीं, आप अकेले हैं। उचित हो यह कहना कि हमने प्रेम ही नहीं किया किसी को। मनुष्यता को प्रेम किया, तो धोखा है। नहीं प्रेम किया, इस बात को छिपाने की तरकीब है कि मनुष्यता को प्रेम किया। अक्सर ऐसा होता है कि जो एक व्यक्ति को प्रेम नहीं कर सकते, वे ईश्वर को प्रेम कर लेते हैं। हालांकि व्यक्ति को भी प्रेम करना जिनकी सामर्थ्य नहीं है, वे ईश्वर को प्रेम नहीं कर पाएंगे। ईश्वर का प्रेम व्यक्तियों के प्रेम से बचने का उपाय नहीं है; ईश्वर का प्रेम व्यक्तियों के प्रेम की ही गहनता का अंतिम फल है। एक व्यक्ति को कोई प्रेम करे और इतना प्रेम करे, इतना प्रेम करे कि व्यक्ति एक द्वार बन जाए और मिट जाए । और अनंत व्यक्ति में से झांकने लगे, तो ईश्वर आ गया द्वार पर!
लेकिन हर व्यक्ति तो बंद दरवाजा है। वहां से दीवार है, वहां तो कोई द्वार मिलता नहीं, वहां प्रवेश हो नहीं सकता। एक आदमी आंख बंद करके ईश्वर को प्रेम करता है। यह ईश्वर इस आदमी की कल्पना में ही है, और कहीं भी नहीं। ईश्वर चारों तरफ मौजूद है। लेकिन हम जहां से भी उसे छुएंगे, वहीं व्यक्ति मिलेगा। अगर कोई सोचे कि निर्व्यक्ति ईश्वर को प्रेम करना है, तो वह अपने को धोखे में डाल लेगा। वह प्रेम के अभाव को परमात्मा का प्रेम समझ कर भूल में पड़ सकता है, वंचना में पड़ सकता है।
लाओत्से कहता है, छोड़ो मानवता को, ताकि मनुष्य के प्रति प्रेम हो सके। छोड़ो बड़े सिद्धांत; वह तुम्हारी पात्रता नहीं है। छोड़ो दूर की बातें; ताकि निकट से प्रेम हो सके।
और चलना हो किसी को, तो निकट से चलना पड़ता है। अगर मुझे यात्रा करनी है, तो मुझे पहला कदम तो अपने पास ही उठाना पड़ेगा। हजार मील दूर की मंजिल से तो कदम नहीं उठाए जा सकते; वहां तो मैं हूं नहीं। मैं जहां हूं, वहां से मुझे यात्रा करनी होती है। प्रेम का भी कदम उठाना हो, तो मुझे अपने पास ही उठाना पड़ता है। धर्म का भी कदम उठाना हो, तो मुझे पास ही उठाना पड़ता है।
एक आदमी कहता है कि नहीं, आदमियों को मैं प्रेम नहीं कर सकता, मैं तो मनुष्यता को प्रेम करूंगा। यह मंजिल से यात्रा शुरू कर रहा है। जहां यह है ही नहीं, वहां से यह यात्रा शुरू कर रहा है। एक आदमी कहता है, मैं तो ईश्वर को प्रेम करूंगा। ईश्वर ही मिल गया होता, तो ईश्वर को प्रेम करने की अब कोई जरूरत न थी। और जो मिला ही नहीं है, उसे प्रेम कैसे करिएगा? जिसे जाना नहीं, उसे प्रेम कैसे करिएगा? लोग कहते हैं कि प्रेम करके हम ईश्वर को जान लेंगे। लेकिन जिसे जाना नहीं, उसे प्रेम कैसे करिएगा? जिससे कोई परिचय नहीं, जिससे कोई मिलन नहीं, उसे प्रेम कैसे करिएगा? तो हमारा प्रेम कहीं धोखा न हो! जिन्हें हम जानते हैं, उनसे बचने का उपाय न हो! जिन्हें हम प्रेम कर सकते हैं, कहीं उनसे भाग जाने की विधि न हो!
ईश्वर को प्रेम किया जा सकता है; विराट को प्रेम किया जा सकता है लेकिन यात्रा सदा ही निकट से शुरू करनी पड़ती है। आकाश में भी जाना हो, तो घर की अपनी सीढ़ी पर ही पहला पैर रखना पड़ता है। दूर जिन्हें जाना है, उन्हें समीप से शुरू करना पड़ेगा। अंतिम कदम पहले कदम से ही शुरू होता है। अंतिम कदम से कोई यात्रा शुरू नहीं होती।
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