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ताओ के पतब पर सिद्धांतों का जन्म
तो हमने व्यवस्था की थी कि पच्चीस वर्ष में बेटे घर लौटेंगे आश्रमों से, पच्चीस वर्ष के होकर घर लौटेंगे विवाह के लिए; तब तक पिता और मां पचास वर्ष के हो चुके होंगे। जिस दिन बेटे घर में प्रवेश करेंगे, उसी दिन मां-बाप वानप्रस्थ हो गए। उनका मुंह अब जंगल की तरफ हो गया। अब शरीर और वासना और वह सब बच्चों के खेल उनके लिए न रहे। अब बच्चे उन खिलौनों से खेलने लगे, अब उन्हें उनके पार हो जाना चाहिए। इसलिए पचास साल के मां-बाप वानप्रस्थ हो गए। पच्चीस साल बाद बेटों के बेटे गुरुकुल से लौटेंगे। तब तक मां-बाप पचहत्तर साल के हो चुके होंगे। अब उनके बेटों का वक्त आ गया वानप्रस्थ होने का। तब वे संन्यस्त हो जाएंगे। तब बात समाप्त हो गई। अब उनकी दुनिया बिखर गई।
तो बाप के प्रति एक आदर था। और ये जो पचहत्तर साल के बूढ़े थे-बूढ़े नहीं कहना चाहिए, वृद्ध, क्योंकि बुढ़ापा तो उम्र से आता है; वार्धक्य, ज्ञान, अनुभव प्रतीतियों का फल है-ये जो पचहत्तर साल के वृद्ध हैं, ये जाकर गुरुकुलों में गुरु का काम करेंगे। ये जिन्होंने जीवन की इन तीन सीढ़ियों को पार किया, ब्रह्मचर्य को जाना पच्चीस वर्ष तक, पच्चीस वर्ष तक संसार को पहचाना, पच्चीस वर्ष तक संसार के बीच रह कर संसार के बाहर रहने की कला सीखी, ये गुरु होंगे।
इन गुरुओं के प्रति अगर आदर सहज होता, तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं है। छोटे-छोटे बच्चे जो गांव से इनके पास पढ़ने आएंगे, उनके लिए ये हिमालय के शिखर मालूम पड़ेंगे। इनको छूना भी बहुत दूर की बात है। इनका पैर भी छू लेना परम सौभाग्य होगा। ये इतने फासले पर हैं, इतना डिस्टेंस है, इतनी दूरी है कि कभी इन तक पहुंच पाएंगे, इसकी कल्पना भी बांधनी मुश्किल है। इन गुरुओं को आदर सहज मिल जाता। वे गुरु थे। और गुरु होने के पहले वे पिता थे। पिता होने के पहले वे ब्रह्मचर्य के जीवन में थे। यह सारी एक लंबी प्रक्रिया है, सहज।
लाओत्से कहता है, लेकिन सहज। अगर जीवन अपनी सहज धारा से बहता चला जाए, तो धर्म का फूल खिलता है। और अगर हम बांधे उसे मर्यादाओं में, नियमों में, तो धर्म का फूल खिलना तो मुश्किल है, अगर हम नैतिकता के थोड़े-बहुत कागज और प्लास्टिक के फूल लगाने में सफल हो जाएं, उतना काफी है।
'और जब देश में कुशासन और अराजकता छा गई, तब स्वामिभक्त मंत्रियों की प्रशंसा होने लगी।'
एक ही बात है अलग-अलग पहलुओं पर कि सहजता को छोड़ना ही अधर्म है। साधुता धर्म नहीं है लाओत्से के लिए, सहजता धर्म है। बस यह आखिरी बात खयाल में ले लें। साधुता धर्म नहीं है लाओत्से के लिए, क्योंकि साधुता असाधुता के विपरीत नियम है। सहजता धर्म है। सहजता किसी के विपरीत नहीं है। असाधु भी सहज अगर जीए, तो साधु हो जाएगा। और साधु भी अगर असहज जीता है, तो सिर्फ छिपा हुआ असाधु है। एक स्पांटेनियस, एक सहज-स्फूर्त जीवन ही लाओत्से के लिए धर्म है। फूल खिलते हैं, पक्षी गीत गाते हैं, सूरज उगता है; आदमी भी जिस दिन ऐसा ही सहज होता है, कहीं कोई असहजता नहीं, कोई आरोपण नहीं।
हमें बहुत कठिन लगेगा। क्योंकि सुनते ही हमें लगेगा कि अगर कहीं कोई आरोपण नहीं, तो हम क्या करेंगे अगर हम पर से सब आरोपण उठा लिए जाएं? जरा सोचें कि आप पर कोई नियम नहीं, कोई आरोपण नहीं, पहला काम आप क्या करेंगे? कोई अपने पड़ोसी की पत्नी को ले भागेगा; कोई बैंक पर डाका डाल देगा; कोई किसी की हत्या कर देगा। आपको खयाल जो आएगा। सोचना आप एक क्षण बैठ कर कि आप पर कोई नियम न रहे, आपने लाओत्से को बिलकुल मान लिया, क्या करिएगा?
सुना है मैंने, एक दफ्तर में एक मनोवैज्ञानिक की सलाह मान कर मालिक ने एक तख्ती लगा ली। लोग थे अलाल दफ्तर के, कोई काम नहीं करता था। उसने एक तख्ती लगा ली–कि जीवन है छोटा; जो कल करना है, वह आज करो; जो आज करना है, वह अभी करो।
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