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ताओ के पतन पर सिद्धांतों का जन्म
हम जिस दुनिया में रह रहे हैं, वह पैरालाइज्ड है, लकवा खा गई दुनिया है, पक्षाघात से भरी दुनिया है। किसी बाप को भरोसा नहीं है कि बेटा आज्ञा मानेगा। और अगर बेटे आज्ञा मानते मालूम पड़ते हैं, तो वे गोबर-गणेश बेटे होते हैं, बिलकुल गोबर के गणेश। उनसे कोई तृप्ति भी नहीं होती। उनसे कहो बैठो, तो वे बैठ जाते हैं। जब तक न कहो उठो, तब तक वे उठते ही नहीं। उनसे कोई तृप्ति नहीं मालूम होती। जिन बेटों में थोड़ी बुद्धि दिखाई पड़ती है, वे सुनते नहीं। वे बाप को आज्ञाकारी बनाने की कोशिश करते हैं।
पचास साल पहले अमरीका में, मनोवैज्ञानिक कहते थे कि बेटे घर में घुसते डरते हैं, लड़कियां घर में घुसते डरती हैं। अब हालत उलटी है। बाप-मां घर में घुसते डरते हैं, कि पता नहीं बेटे-बेटियां क्या उपद्रव खड़ा कर दें! पचास साल पहले बेटे और बेटियां अमरीका में मां-बाप से पीड़ित थे, ऑप्रेस्ड थे। अब मां-बाप उनसे ऑप्रेस्ड हैं। हर बात में मां-बाप को डरना पड़ता है कि कोई गलती तो नहीं कर रहे! कहीं कोई कांप्लेक्स बच्चे में पैदा तो नहीं हो जाएगा! कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि मनोवैज्ञानिक कहें कि तुमने बच्चे को बीमारी दे दी, इसका मन खराब कर दिया! डरे हुए हैं, घबड़ाए हुए हैं।
यह जो पक्षाघात से ग्रस्त दुनिया है, यह लाओत्से की सलाह न मानने के कारण है। लाओत्से कहता यह है कि जीवन की जो सहजता है, उसको बांधने की चेष्टा मत करो; अन्यथा टूट भी पैदा होगी। आज्ञा मनवाने की चेष्टा मत करो; अन्यथा अवज्ञा पैदा होगी। अनुशासन थोपो मत; अन्यथा दूसरे के भीतर भी अहंकार है, वह अहंकार प्रतिकार करेगा। और जब बाप कहता है कि मैं मनवा कर रहूंगा, तो बेटे का अहंकार भी कहता है कि देखें, कैसे मनवा कर रहेंगे! बाप का अहंकार बेटे का अहंकार पैदा करवा देता है। और जब बाप के मन में मनवाने की कोई आकांक्षा नहीं होती, तो बेटे के मन में भी न मानने का कोई प्रतिरोध पैदा नहीं होता है।
___ इसे थोड़ा समझ लें। जब बाप सचेत होता है कि ऐसा करवा कर ही रहेंगे, तो बेटा भी सचेत हो जाता है। और ध्यान रहे, अगर बेटे और बाप में लड़ाई होगी, तो अंततः बेटा जीतेगा। क्योंकि बाप तो हारती हुई बाजी है, बाप जीत नहीं सकता। वह कितना ही वहम पाले, वह जीत नहीं सकता। बेटा ही जीतेगा। बेटा है उठती हुई ताकत, और बाप है डूबती हुई ताकत। अगर विरोध खड़ा होगा, तो बेटा जीतेगा, बाप हारेगा। और सारी दुनिया में बाप हार रहे हैं; जगह-जगह उनके पैर उखड़ते जा रहे हैं। और बड़ी हैरानी की बात है कि बाप और बेटों के बीच संघर्ष...।
तुर्गनेव ने एक किताब लिखी है : फादर्स एंड संस। कीमती किताब है। बाप और बेटों के संघर्ष की कथा है। हर बाप हर बेटे से लड़ रहा है। हर बेटा हर बाप से लड़ रहा है। लाओत्से कहेगा, इससे ज्यादा रुग्ण और विक्षिप्त अवस्था क्या होगी, जहां बाप और बेटों को लड़ना पड़ता है! तो फिर दुनिया में और क्या उपाय होगा जहां लड़ना न हो!
लेकिन हम देखते हैं कि लड़ाई जारी है। हर घर में लड़ाई जारी है। हर इंच पर लड़ाई जारी है। और हर इंच पर तय करना होता है-कौन जीता, कौन हारा। रोज बाप हारता जाएगा। लेकिन इस बाप के हारने में कोई गहरा नियम काम कर रहा है, जो हमारे खयाल में नहीं है। और लाओत्से उसी नियम की याद दिलाता है। वह दिलाता है याद कि जब बाप सिद्ध करने की कोशिश करेगा कि मैं बाप हूं और मेरी मानो, और जब गुरु कहेगा कि मैं गुरु हूं, मेरा आदर करो; तो इसकी जो प्रतिध्वनि है, वह अनादर है। जब गुरु ऐसा होता है कि उसे पता ही नहीं कि उसे भी आदर दिया जाना चाहिए, तब उसे आदर मिलता ही है।
मैं विश्वविद्यालय के शिक्षकों के एक सम्मेलन में था। वहां बड़ी चर्चा यही थी कि शिक्षक का आदर खतरे में है। पूरी चर्चा यही थी। तो है ही खतरे में। खतरे में है, यह भी कहना क्या ठीक है? अब तो खतरा भी बीत चुका। अब तो आदर कहीं बचा भी नहीं है। मरीज मर ही चुका है। अब क्या खतरे में है? लेकिन अभी भी बचाने की कोशिश में लगे हैं। और जितनी बचाने की कोशिश करते हैं, उतना उपद्रव फैलता चला जाता है। हर स्कूल,
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