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ताओ उपनिषद भाग २
अगर हम परिणाम को देखें, तो हमें बहुत बात साफ हो जाएगी। आज जमीन पर जितना ज्ञान है, इतना शायद कभी भी नहीं था। और आज आदमी जितना अज्ञानी है, इतना भी कभी नहीं था। यह पैराडाक्सिकल मालूम होता है। इतना ज्ञान और इतना अज्ञान एक साथ! लाओत्से को मालूम नहीं होता। लाओत्से तो कहता है, तुम जितना ज्ञान बढ़ाओगे, उतना अज्ञान बढ़ेगा। लेकिन हमें मालूम होगा। क्योंकि हमारी धारणा यह रही है कि जितना ज्ञान बढ़ेगा, उतना अज्ञान कम होगा। हमारे सोचने का तर्क यह है कि जितना ज्ञान बढ़ जाएगा, उतनी अज्ञान की राशि कम हो जाएगी। . लेकिन इतिहास हमें गवाही नहीं देता, हमारा प्रमाण नहीं देता। ज्ञान की राशि तो बढ़ी, कोई शक-शुबहा नहीं है। प्रति सप्ताह पांच हजार नए ग्रंथ सारी दुनिया में निर्मित हो जाते हैं। प्रति सप्ताह पांच हजार नए ग्रंथं गतिमान हो जाते हैं। हमारे पुस्तकालय बढ़ते चले गए हैं। हमारे विश्वविद्यालय फैलते चले गए हैं। हमारे ज्ञान की शाखाएं-प्रशाखाएं नई होती चली गई हैं। आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी तीन सौ साठ विषयों में शिक्षण देती है।
हर तरफ हम ज्ञान की राशि को बढ़ाते चले गए हैं। और हर रोज हमें ज्ञान की नई शाखाएं तोड़नी पड़ती हैं। क्योंकि ज्ञान इतना हो जाता है कि एक ही शाखा पर भारी हो जाता है, सम्हाला नहीं जा सकता। आज अगर कोई आदमी सिर्फ छोटी सी आंख के संबंध में भी पूरा विश्व-साहित्य जानना चाहे, तो एक जीवन छोटा है। वह कितना ही जानता चला जाए, छोटी सी आंख के संबंध में भी आज पूरा ज्ञान नहीं हो सकता।
इसलिए हमको बांटते चलना पड़ता है। एक दिन हमारा डाक्टर पूरे शरीर का इलाज करता था। ज्ञान बहुत कम था। एक डाक्टर ही सारे ज्ञान को जान लेता था। फिर ज्ञान बढ़ा, तो हमें स्पेशलिस्ट निर्मित करने पड़े, विशेषज्ञ निर्मित करने पड़े। क्योंकि ज्ञान इतना हो गया कि एक ही डाक्टर पूरे शरीर को नहीं जान सकता। तो फिर हमें अलग अंगों के अलग डाक्टर खोज लेने पड़े। __अब एक-एक अंग का भी इतना ज्ञान है कि एक ही डाक्टर की सीमा के बाहर है जान लेना। इसलिए अब अमरीका में तो खयाल ही यह है कि भविष्य में ज्ञान इतना होता जा रहा है कि आदमी पर भरोसा नहीं किया जा सकता, कम्प्यूटर ही सहायता करेंगे। तो भविष्य में तो यही स्थिति हो जाने वाली है कि ज्ञानी वह आदमी है, जो कम्प्यूटर का उपयोग करना जानता है। तो डाक्टर को डाक्टरी जाननी जरूरी नहीं है, बल्कि कम्प्यूटर से पूछ सके, फलां बीमारी के लिए कौन सा इलाज होगा-इतनी कुशलता आवश्यक होगी। क्योंकि ज्ञान इतना होता जा रहा है कि आदमी के मस्तिष्क में उसे समाया नहीं जा सकता।
पुस्तकें इतनी होती जा रही हैं कि अब बड़ी लाइब्रेरीज नहीं निर्मित की जा सकतीं, क्योंकि वे सारी जमीन को घेर लेंगी। सिर्फ मास्को की लाइब्रेरी में इतनी किताबें हैं कि अगर हम एक के बाद एक आलमारी को रखते जाएं, तो पूरी जमीन का एक चक्कर हो जाएगा। इन किताबों को कौन पढ़ेगा?
इसलिए माइक्रो बुक्स का खयाल पैदा हुआ है। छोटी किताबें होनी चाहिए। फिल्म रहेगी छोटी। एक हजार पन्ने की किताब एक पन्ने पर आ जाएगी। वह पन्ना संगृहीत रखा जा सकता है। और जब भी किसी को पढ़ना हो, तो . पढ़ने का ढंग पुराना नहीं रह जाएगा। फिल्म और प्रोजेक्टर के द्वारा ही किताब पढ़ी जा सकेगी।
किताबें बढ़ती जाती हैं। ज्ञान बढ़ता जाता है। और अभी तो पश्चिम के वैज्ञानिक चिंतित हो गए हैं कि हम अपने बच्चों को, जितना ज्ञान हमारी पीढ़ी पैदा कर रही है, उसको कैसे ट्रांसफर करें? इसलिए नया खयाल आ रहा है, वह यह कि शिक्षा बीस-पच्चीस साल में समाप्त नहीं हो जानी चाहिए। कम से कम पचास साल तक अगर हम शिक्षा न दें, तो इस सदी के बाद शिक्षा का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। लेकिन अगर एक व्यक्ति को हम पचास साल तक शिक्षा दें, तो वह जीएगा कब? उसके जीने का कोई उपाय नहीं मालूम होता।
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