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ताओ के पतब पर सिद्धांतों का जन्म
आदमी ज्ञान की दृष्टि से दरिद्र हो जाता है। चेतना भी सीमित है। और जब एक व्यक्ति परम चैतन्य को उपलब्ध हो जाता है, तो कोई दूसरा व्यक्ति चेतना की दीनता को उपलब्ध हो जाता है। और न केवल सीमित होने के कारण, बल्कि संतुलन के लिए भी आवश्यक है। अन्यथा जीवन की व्यवस्था टूट जाए, सब बिखर जाए।
इसलिए एक अनूठी बात मनुष्य के इतिहास में दिखाई पड़ती है कि जैसे-जैसे सदगुणों की आकांक्षा बढ़ती है, वैसे-वैसे दुर्गुण भी विकसित होते हैं।
लाओत्से कहता है कि एक ऐसी अवस्था भी है प्रकृति की, जब हम द्वंद्व पर ध्यान नहीं देते। वही परम अवस्था है। उसे वह ताओ कहता है, उस स्वभाव की अवस्था को, जब हमें दुर्गुण का भी पता नहीं और सदगुण का भी पता नहीं। जब हमें यह भी पता नहीं कि साधुता क्या है और असाधुता क्या है। वह परम शांति की अवस्था है। जैसे ही हमें पता चला कि साधुता क्या है, उसका अर्थ हुआ कि असाधुता का हमें बोध हो गया है।
इसलिए एक बहुत मजे की बात है कि साधुओं को पाप की जितनी समझ होती है, असाधुओं को उतनी नहीं होती। और साधु जितनी बारीकी से पाप को जानते हैं, असाधु उतनी बारीकी से नहीं जानते। अगर किसी व्यक्ति को स्वास्थ्य का खयाल आ गया, तो उसका अर्थ है कि वह बीमार हो गया है। जिन लोगों को जितना स्वास्थ्य का बोध होता है, वे उतने ही बीमार होते हैं। और जो आदमी चौबीस घंटे स्वास्थ्य का खयाल करता है, वह आदमी कभी स्वस्थ नहीं हो सकता। यह भी एक बीमारी है और गहरी बीमारी है।
लाओत्से कहता है कि ताओ का पतन, वह स्वभाव का पतन कब हुआ। 'महान ताओ के पतन पर मानवता और न्याय के सिद्धांत का जन्म हुआ-ह्यूमैनिटी एंड जस्टिस।' लाओत्से कहता है, जब मनुष्य मनुष्य न रहे, तब मानवता के सिद्धांत का जन्म हुआ।
हम उलटा ही सोचते हैं। हम सोचते हैं, मानवता के सिद्धांत को मान कर हम चलेंगे, तो मनुष्य हो पाएंगे। और लाओत्से कहता है, जब मनुष्य मनुष्य न रहा, तब मानवता के सिद्धांत का जन्म हुआ। तब हमने कहना शुरू किया लोगों से कि मनुष्य बनो!
मनुष्य तो मनुष्य है ही। बनने की कोई बात नहीं है। बनने का तो मतलब यह हुआ कि गिरना हो चुका है। किसी मनुष्य से यह कहना कि मनुष्य बनो, क्या अर्थ है इसका? इसका यही अर्थ है कि मनुष्यता से गिरना हो चुका है।
लाओत्से कहता है, मानवता का महान सिद्धांत मनुष्य के पतन की स्थिति में पैदा होता है। नहीं तो आदमी सहज ही मनुष्य होता है। न्याय की बात ही तभी उठती है, जब अन्याय शुरू हो जाए।
___इसे हम समझ लें। विपरीत के साथ ही बोध शुरू होता है। जब हम कहते हैं, अन्याय नहीं होना चाहिए, न्याय होना चाहिए, तो एक बात साफ है कि अन्याय हो रहा है। और जितनी हम न्याय की पुकार बढ़ाते जाएंगे, उतना ही अन्याय बढ़ता चला जाएगा। हम कहते हैं, ज्ञान चाहिए, क्योंकि अज्ञान घना है। और जितना हम ज्ञान को बढ़ाते चले जाते हैं...।
___ अब लाओत्से की यह बात पश्चिम को भी समझ में आनी शुरू हो गई है। और इस समय पश्चिम में ऐसे बहुत से विचारशील लोग हैं, जो सोचते हैं कि हमें अब लाओत्से को केंद्र मान कर अपनी पूरी व्यवस्था को रि-ओरिएंट कर लेना चाहिए, पुनर्निर्मित कर लेना चाहिए।
अभी तक हमने जो व्यवस्था निर्मित की है जगत में, वह हमने लाओत्से के विपरीत निर्मित की है। हमने सनी उनकी बात, जिन्होंने कहा, अच्छाई होनी चाहिए; हमने सुनी उनकी बात, जिन्होंने कहा, न्याय होना चाहिए; हमने सुनी उनकी बात, जिन्होंने कहा, समानता होनी चाहिए; हमने सुनी उनकी बात, जिन्होंने कहा, मनुष्यता, स्वतंत्रता, समानता, ये सिद्धांत हैं। लेकिन परिणाम क्या है?
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