________________
ताओ उपनिषद भाग २
यह समझने में थोड़ी कठिनाई पड़ेगी, क्योंकि साधु से असाधु का क्या लेना?
लेकिन चेतना भी एक विस्तीर्ण भूमि है, ऐसा समझें। तो जब एक पहाड़ खड़ा होता है, तो पास एक खाई भी निर्मित हो जाती है। और हम पहाड़ खड़ा नहीं कर सकते बिना खाई बनाए। अगर हमें घाटियों से बचना है, तो हमें पहाड़ों से भी बच जाना होना। अगर हम पहाड़ की चोटियां चाहते हैं, तो हमें घाटियों की अंधेरी स्थिति को भी स्वीकार कर लेना होगा। क्योंकि पहाड़ का जो शिखर है, वह एक पहलू है; उसके पास ही पैदा हो गया जो गड्ढ़ है, वह भी उसी का दूसरा पहलू है। वह पहाड़ का ही हिस्सा है। अगर समतल भूमि चाहिए, तो ही हम पहाड़ और घाटियों से बच सकते हैं।
और जैसे यह जमीन के संबंध में सही है, लाओत्से कहता है, चेतना, कांशसनेस के संबंध में भी यही सही है। कांशसनेस भी एक भूमि है। और जब कांशसनेस में, चेतना में एक पहाड़ की तरह व्यक्ति खड़ा होता है, तो तत्क्षण उसको संतुलित करता एक व्यक्ति खाई बन जाता है। जब एक व्यक्ति राम होगा, तो दूसरा व्यक्ति अनिवार्यरूपेण रावण हो जाएगा। अगर राम चाहिए, तो रावण से बचने का कोई उपाय नहीं है। और अगर रावण से बचना है, तो राम का आकर्षण और मोह छोड़ देना होगा।
यह जटिलता है। रावण से हम बचना चाहेंगे, राम को बचाना चाहेंगे। चाहेंगे कि राम ही राम हों, रावण बिलकुल न हो। लेकिन हमें खयाल नहीं है जीवन के संतुलन का। और हमें यह भी खयाल नहीं है कि अगर पृथ्वी पर राम ही राम हों, तो उससे ज्यादा उबाने वाली और घबड़ाने वाली पृथ्वी दूसरी नहीं हो सकती। अगर सारे लोग राम जैसे हों, तो बहुत बोर्डम और बहुत ऊब पैदा करने वाले होंगे। बीच-बीच में वह रावण भी चाहिए। वह राम से ऊब पैदा नहीं होने देता। वह राम में रस को बनाए रखता है।
रावण भी अकेले नहीं हो सकते। भले आदमी के होने के लिए बुरा आदमी जरूरी है, बुरे आदमी के होने के लिए भला आदमी जरूरी है। सब भले आदमी बुरे आदमियों पर निर्भर होते हैं; सब बुरे आदमी भले आदमियों पर निर्भर होते हैं। इंटर-डिपेंडेंट हैं। न तो भले आदमी स्वतंत्र हैं और न बुरे आदमी स्वतंत्र हैं; एक-दूसरे पर निर्भर हैं। .
यह निर्भरता बड़ी कठिन है समझनी। क्योंकि हजारों-हजारों साल से हमारी आकांक्षा रही है : भले लोग हों, बुरे लोग न हों; बुद्धिमान लोग हों, बुद्धिहीन लोग न हों; चरित्रवान लोग हों, चरित्रहीन लोग न हों। हम इस कोशिश में लगे हैं कि प्रकाश ही प्रकाश हो, अंधेरा न हो। हम इस कोशिश में लगे हैं कि जीवन ही जीवन हो, मौत न हो। हम इस कोशिश में लगे हैं कि सुख ही सुख हो, दुख न हो।
लाओत्से कहता है, हमारी कोशिश असफल होगी ही। इसलिए मजे की बात है कि जो आदमी जितना सुख चाहेगा, उतना दुखी हो जाएगा। जो आदमी सुख नहीं चाहेगा, वह दुख से बच सकता है। दुख से बचने का एक ही सूत्र है, सुख को न चाहना। दुख बड़ा हो जाएगा, अगर सुख की आकांक्षा प्रबल है।
जीवन एक द्वंद्व है और द्वंद्वों के बीच एक संतुलन है। इस सूत्र को समझने के पहले यह द्वंद्व और संतुलन का खयाल समझ लेना जरूरी है। विरोध भी है दोनों में और भीतर जोड़ भी है। अब रावण और राम में विरोध साफ है। कौरव और पांडवों में विरोध साफ है; दुश्मनी स्पष्ट है। यह दुश्मनी बहुत ऊपर की बात है। लेकिन गहरे में दोनों एक-दूसरे पर निर्भर हैं। हम सोचते हैं आमतौर से कि एक तरफ अमीर हो जाते हैं लोग, तो एक तरफ लोग गरीब हो जाते हैं। तो हम अमीरों के खिलाफ हैं; क्योंकि एक तरफ लोग अमीर होते हैं, तो एक तरफ लोग गरीब हो जाते हैं।
लेकिन जब हमें जीवन के और सूत्रों का पता चलेगा, तो हमें पता चलेगा, यह सिर्फ धन के संबंध में ही लागू नहीं है। जार्ज गुरजिएफ का खयाल था कि ज्ञान की भी सीमित मात्रा है। और इस सदी में बुद्धिमान से बुद्धिमान लोगों में एक था। उसका खयाल था, ज्ञान भी सीमित है। इसलिए जब कोई आदमी ज्ञान इकट्ठा कर लेता है, तो दूसरा
314