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ताओ के पतन पर सिद्धांतों का जन्म
इसलिए एक नया खयाल आया है। और वह नया खयाल यह है मेमोरी ट्रांसप्लांटेशन का, कि जब एक आदमी मरे, तो उसकी हम स्मृति को बचा लें और छोटे बच्चे के ऊपर स्मृति आरोपित कर दें, रिप्लांट कर दें। ताकि छोटे बच्चे को वे बातें न सीखनी पड़ें, जो उसके बाप ने सीखी थीं। बाप की स्मृति उसे सीधी उपलब्ध हो जाए, तो छोटा बच्चा आगे बढ़ सके, कुछ नया सीख सके। . ज्ञान इतना! लेकिन दूसरी तरफ आदमी को हम देखें, तो अज्ञान भयंकर है। चांद-तारों का हमें पता है अपना हमें कोई पता नहीं है। कैसे पहुंचे मंगल पर, उसकी हम तलाश में हैं और हम रास्ते बना लिए हैं। कैसे पहंचें अपने तक, बहुत दूर मालूम पड़ती है यह यात्रा, पहुंचना संभव नहीं मालूम पड़ता। इतना ज्ञान है और आदमी इतना अनाश्वस्त! उसको कोई आश्वासन नहीं है कि कभी अपने को जान सकेगा।
इतना ज्ञान है हमें अब कि हम सब जानते हैं, क्रोध कैसे पैदा होता है, कैसे कार्य करता है। कामवासना कैसे जगती है, कैसे कार्य करती है, क्या उसकी बायो-केमिस्ट्री है, क्या उसके कार्य करने का ढंग है, सब हमें पता है। बुद्ध को इतना पता नहीं था। लेकिन बुद्ध को इतना पता था कि क्रोध उनके भीतर काम नहीं कर पाता था। हमें क्रोध के संबंध में सब कुछ पता है; लेकिन क्रोध पर हमारा रत्ती भर भी कोई वश नहीं है। कामवासना के संबंध में हमें जितना ज्ञात है, मनुष्य-जाति के इतिहास में कभी किसी को ज्ञात नहीं था। लेकिन कामवासना से जिस बुरी तरह हम पीड़ित हैं, वैसा कभी कोई समय इस बुरी तरह पीड़ित नहीं रहा।
हमारा ज्ञान तो बढ़ता गया है राशि में। और हमारा अज्ञान भी बढ़ता गया है। जितना कंपता हुआ आदमी आज का है-खुद पर उसे कोई भरोसा नहीं है; एक क्षण का कोई विश्वास नहीं है; कोई सुरक्षा नहीं है; जीवन अर्थहीन मालूम पड़ता है। तो निश्चित ही जिस तर्क का सहारा लेकर हम चले थे, वह गलत सिद्ध हुआ है।
अरस्तू का तर्क लेकर मनुष्य-जाति चली है। अरस्तू ने कहा था कि ज्ञान बढ़ जाए, तो अज्ञान कम हो जाएगा। यह सीधा गणित है। लाओत्से का गणित तो उलटा मालूम पड़ता है। लाओत्से कहता है, ज्ञान बढ़ेगा, तो अज्ञान भी बढ़ेगा। लाओत्से की कभी किसी ने सुनी नहीं। सुनने जैसी बात भी नहीं थी। बिलकुल अर्थहीन मालूम पड़ती है, तर्कहीन मालूम पड़ती है। स्वाभाविक बात है कि ज्ञान बढ़े, तो अज्ञान कम हो जाना चाहिए। हमारे मन को समझ में
आती है। इसलिए अरस्तू सारी मनुष्य-जाति के लिए केंद्र बन गया। और पश्चिम ने अरस्तू को आधार मान कर सारा विज्ञान विकसित किया।
लेकिन अब जब चीजें विकसित हो गई हैं, तो पता चलता है कि शायद लाओत्से ही सही है। इधर पचास वर्षों में पश्चिम में जो भी बुद्धिमान लोग हैं, उन सब की प्रतीति एक ही है कि जीवन बिलकुल अर्थहीन हो गया है, मीनिंगलेस हो गया है। कोई अर्थ नहीं सूझता। किसलिए हम जी रहे हैं, कुछ पता नहीं चलता। क्यों यह भाग-दौड़ है, क्यों यह आपाधापी है, कुछ पता नहीं चलता। जीएं ही क्यों, इसका भी कोई कारण नहीं मालूम होता।
सात्र ने कहा है, बिना हमारी मर्जी के हमें जीना पड़ता है। बिना हमारी मर्जी के न मालूम क्यों हम पैदा किए जाते हैं। बिना हमारी मर्जी के न मालूम किस दिन हम उठा लिए जाते हैं! सात्र ने कहा है कि एक ही बात है जिसमें हम अपनी मर्जी जाहिर कर सकते हैं और वह आत्मघात है, स्युसाइड है। और तो हमारी कोई मर्जी नहीं है। न कोई हमसे पूछता जन्म के समय; न कोई हमसे पूछता मृत्यु के समय। यह जीवन एक दुख-स्वप्न, एक नाइटमेयर मालूम होता है।
इधर पचास वर्षों में न मालूम कितने विचारशील लोगों ने आत्महत्या की है। ऐसा कभी नहीं हुआ था। पचास साल के पहले दुनिया में आत्महत्याएं हुई हैं—विचारहीन लोगों के द्वारा। इन पचास वर्षों में जो आत्महत्याएं हुई हैं, वे हुई हैं विचारशील लोगों के द्वारा। यह गुणात्मक भेद है। पचास साल पहले जो आदमी आत्महत्या करता था, वह
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