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ताओ उपनिषद भाग २
जैसे पहाड़ गुजरने लगा। क्या होगा अंत? जो आदमी दरवाजे पर छोड़ कर गया था, वह दरवाजा बंद करके लौट गया है। क्या होगा अंत? क्या रात भर ऐसे ही बीतेगी? यह तो नरक हो गया। और इतने चुप बैठे हैं वे लोग, इतने मूर्तिवत, कि अपनी तरफ से उस मौन को भंग करना भी अशिष्टता मालूम पड़ती है। आस-स्की ने लिखा है कि मैं बिलकुल नाचीज मालूम पड़ने लगा-नोबडी, जैसे मैं कुछ भी नहीं हूं।
यह कोई पंद्रह मिनट हालत रही। और तब गुरजिएफ ने ऊपर चेहरा उठा कर देखा और कहा, पसीना पोंछ लो, रात ऐसे बहुत सर्द है; बैठ जाओ। जान कर ही हमने यह किया। हम जानना चाहते थे कि तुम कैसे व्यक्ति हो। क्या तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारी उपस्थिति अनुभव करें। क्योंकि हम इसे हिंसा मानते हैं। तुम पंद्रह मिनट भी बर्दाश्त न कर सके। तुम पंद्रह मिनट भी ऐसे न हो सके, जैसे मौजूद ही न हो! अगर तुम ऐसे हो सकते, तो फिर मेरे पास तुम्हें सिखाने को कुछ भी नहीं था। लेकिन तुम ऐसे नहीं हो सके, तो मुझे तुम्हें सिखाने को बहुत कुछ है। तुम हिंसक हो।
हम हिंसा बहुत तरह से करते हैं। प्रकार अनेक हो सकते हैं। एक आदमी ऐसे वस्त्र पहन कर आ जाता है कि आपको देखना ही पड़े; कि एक आदमी ऐसी चाल-ढाल से आता है कि आपको देखना ही पड़े। हर आदमी शोरगुल करता आता है, चाहे कितना ही चुप आ रहा हो। और हर आदमी धक्का देता आता है, चाहे कितना ही धक्कों से बचता हुआ आ रहा हो। हर आदमी यह खबर लाता है कि मैं आ गया हूं, मैं यहां हूं।
सिर्फ परमात्मा ऐसी कोई खबर नहीं करता। नास्तिक कहते हैं, वह दिखाई पड़े, तो हम मान लें। नास्तिक यह कहते हैं कि वह भी हमारी ही तरह सूचना दे अपनी मौजूदगी की, तो हम मान लें।
नास्तिकों को पता नहीं कि परमात्मा के होने का जो गुण है, जो गहरा गुण है उसके अस्तित्व का, वह यही है कि वह न होने जैसा हो, उसका कोई पता न चले। जिस दिन परमात्मा का पता चल जाए, उस दिन वह परमात्मा न रहा। और जिस दिन वह स्वयं अपनी घोषणा करने लगे, उस दिन वह परमात्मा न रहा। जिस दिन वह आकर आपकी गर्दन हिला कर आपको कहने लगे कि मैं यहां हूं, देखो, मैं यहीं मौजूद हूं, तुम बिना देखे ही चले जा रहे हो, उस दिन वह परमात्मा न रहा।
परमात्मा का अर्थ ही यह है कि जिसकी उपस्थिति और अनुपस्थिति में रंच मात्र का फर्क नहीं है। जिसके लिए एब्सेंस और प्रेजेंस, दोनों शब्द पर्यायवाची हैं, एक ही अर्थ रखते हैं। जिसके उपस्थित होने का ढंग ही अनुपस्थिति है।
तो लाओत्से कहता है, श्रेष्ठतम शासक है वही, जिसके होने की खबर भी प्रजा को न हो।
ईश्वर के सिवाय ऐसा कोई शासक नहीं है। कभी अगर कोई शासक इस ईश्वर की स्थिति के निकट पहुंच जाता है, तो ही...। इसलिए पुराने दिनों में, कम से कम लाओत्से के समय के और कोई दो-ढाई हजार वर्ष पहले, ईश्वर का अवतार मानते थे सम्राट को। अब तो ऐसा लगता है कि वह चालबाजी थी। अब तो इधर दो-तीन सौ वर्षों में जो चिंतन चला है, उसने समझाया है कि यह सब शरारत थी, यह पुरोहितों और राजाओं का षड्यंत्र था। बहुत दूर तक यह सही भी है; लेकिन पूरे रूप से सही नहीं है। कभी-कभी कोई राजा ऐसा भी हुआ है, जिसकी उपस्थिति का प्रजा को न के बराबर पता चला। तब उस राजा को लाओत्से जैसे लोगों ने ईश्वरीय कहा है; जिसके होने का पता ही न चला हो या कम से कम पता चला हो। इतना ही पता चला हो कि वह है, और कोई खबर न मिली हो।
लाओत्से कहता है कि अगर कोई शासक, कोई सम्राट इस तरह अनुपस्थित हो जाए अपने भीतर, तो उसकी मौजूदगी से ही प्रजा का कल्याण हो जाता है।
ये बातें आज समझनी बहुत मुश्किल हो गई हैं। क्योंकि आज तो राजपद की तरफ वही आदमी जाता है, जो बेचैन है अपनी उपस्थिति बताने को। जिसकी एक ही बेचैनी है कि लोग जान लें कि वह कुछ है। इसके लिए वह लोगों के चरणों पर भी सिर रख कर सिंहासन की यात्रा करता है।
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