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श्रेष्ठ शासक कॉन?-जो परमात्मा जैसा हो
दोनों अर्थ होते हैं, दुख भी और ज्ञान भी। वेद का अर्थ होता है ज्ञान। उसी विद से बनता है विद्वान, जानने वाला; उसी से बनता है वेदना, दुख। एक ही शब्द के दो अर्थ और बड़े अजीब! अगर वेदना का अर्थ दुख हो और वेदना का अर्थ ज्ञान भी हो, तो समझ में नहीं पड़ता, दुख और ज्ञान में क्या संबंध है? अगर दुख की जगह सुख और ज्ञान होता, तो संबंध भी बन सकता था। . लेकिन संबंध है। आपको दुख का ही ज्ञान होता है, सुख का ज्ञान नहीं होता। इसलिए जिन क्षणों को आप कहते हैं कि बड़े सुख में बीते; वे वे क्षण हैं, जिनके बीतते वक्त आपको उनका बिलकुल भी पता नहीं चला। दुख का बोध होता है। पैर में कांटा गड़ जाए, तो पैर का पता चलता है; नहीं तो पैर का पता नहीं चलता। सिर में दर्द हो, तो पहली दफे सिर का पता चलता है; नहीं तो सिर का पता नहीं चलता।
तो जिस आदमी को सिर का पता चलता हो, उसे जानना चाहिए कि उसे सिर की कोई बीमारी है। जिस आदमी को शरीर का पता चलता हो, उसका अर्थ है कि वह बीमार है, रुग्ण है। स्वास्थ्य की एक ही परिभाषा है कि शरीर का पता न चले। स्वस्थ आदमी विदेह हो जाएगा, उसे पता ही नहीं चलेगा कि देह भी है। सिर्फ बीमार आदमी के पास शरीर होता है, स्वस्थ आदमी के पास शरीर नहीं होता। और बीमार आदमी के पास बड़ा शरीर होता है। जितनी बीमारियां, उतना बड़ा शरीर। क्योंकि उतना शरीर का बोध होता है।
___ दुख, बोध एक ही बात है। जिसकी मौजूदगी पता चले, उससे आपको कोई दुख मिल रहा है। जिसकी मौजूदगी पता न चले, उससे ही आनंद मिलता है। अगर दो प्रेमी एक कमरे में बैठे हैं, तो वहां दो व्यक्ति नहीं बैठे हैं। वहां एक-दूसरे से एक-दूसरे को कोई बोध नहीं है। वहां एक ही चेतना रह गई है।
लाओत्से कहता है, सर्वश्रेष्ठ शासक वह है, जिसके होने का पता ही शासितों को न चले।
शायद परमात्मा के अतिरिक्त ऐसा और कोई शासक नहीं है। उसका भर हमें पता नहीं चलता। खोजें, तो भी पता नहीं चलता। पता लगाने जाएं हिमालय में, तो भी पता नहीं चलता। काशी, मक्का, मदीना भटकें, तो भी पता नहीं चलता।
थोड़ा खयाल करें। आपके मन की एक इच्छा होती है कि आप जहां भी जाएं, वहां लोगों को पता चले कि आप आए हैं। कितना उपाय नहीं करते हैं हम इसका कि लोगों को पता चले कि आप आ गए। आप इस भवन में आएं और किसी को पता न चले, तो आप बड़े पीड़ित हो जाएंगे, बड़े पीड़ित हो जाएंगे।
आसप्रेस्की पहली दफा जब गुरजिएफ को मिलने गया, तो बीस लोग बैठे थे। आसपेंस्की बड़ा बुद्धिमान व्यक्ति था, बड़ा गणितज्ञ था, वैज्ञानिक चिंतक था-अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध। गुरजिएफ को कोई जानता भी नहीं था। किसी अचेतन मन में आसपेस्की ने सोचा होगा ः गुरजिएफ उठ कर मिलेगा, जो लोग बैठे होंगे, चमत्कृत होंगे कि आसप्रेस्की जैसा अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का व्यक्ति अनजान गुरजिएफ से मिलने आया है! वहां बीस लोग बैठे थे और गुरजिएफ भी बैठा था। आस-स्की को जब भीतर ले जाया गया, तो आस-स्की ऐसा हैरान हुआ, ऐसा मरा हुआ कमरा उसने कभी देखा ही नहीं था। उन बीस में से कोई हिला भी नहीं, किसी ने आंख भी उसकी तरफ न की। उन बीस ने जैसे जाना ही नहीं कि कोई आया। गुरजिएफ वैसा ही बैठा रहा, जैसा बैठा था।
आसपेंस्की जाकर खड़ा हो गया। यह बड़ा अजीब परिचय का क्षण था। यह भी न पूछा-कैसे आए? यह भी न पूछा-कौन हैं? यह भी न कहा-बैठे, कृपा करें। सर्द रात थी। आसपेंस्की ने लिखा है, माथे पर मेरे एक क्षण में पसीना झलकने लगा। यह मैं कहां आ गया हूं? वहां से पैर भी वापस लौटाने की हिम्मत न रही। वहां मैं जड़ की तरह खड़ा रह गया। कोई कहे कि बैठो, तो बैठ भी जाऊं। लेकिन वहां कोई देखता ही नहीं है। मिनट, दो मिनट...! आसपेस्की ने लिखा है, पहली दफे मुझे समय का बोध हुआ कि समय कितनी भारी चीज है। मेरे सिर पर
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