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ताओ का द्वार-सहिष्णुता व निष्पक्षता
पशुओं को कोई बोध नहीं है कि मृत्यु है, क्योंकि पशुओं को समय का बोध नहीं है, पशुओं को भविष्य का बोध नहीं है। इसलिए पशु एक अर्थ में सुखी हैं। आदमी को बोध है कि मौत है। तो आदमी ज्यादा से ज्यादा दुखी हो सकता है, या दुख को भुला सकता है; दो ही काम कर सकता है। सुखी नहीं हो सकता-जब तक कि लाओत्से की बात न समझ ले, जब तक कि शाश्वत से एक न हो जाए। . पशु सुखी हो सकते हैं; मौत का भाव नहीं है। आदमी सुखी नहीं हो सकता। पशुओं के ढंग से आदमी सुखी नहीं हो सकता। असल में, उस यात्रा के हम पार आ गए हैं; उस जगह को हम छोड़ चुके हैं। एक जवान आदमी बच्चे के ढंग से सुखी नहीं हो सकता। कितने ही खिलौने उसके चारों तरफ रख दो, कितना ही कहो कि इतने खिलौने हैं, पूरा घर खिलौनों से भर देते हैं। लेकिन एक जवान आदमी बच्चों के ढंग से सुखी नहीं हो सकता।
और अगर आप सच में बूढ़े हो गए हैं, वृद्ध हुए हैं, तो जवान के ढंग से आप सुखी नहीं हो सकते। कितनी ही खूबसूरत औरतें चारों तरफ बिठा दी जाएं, और कितना ही नाच-रंग हो जाए, अगर आप सच में वृद्ध हो गए हैं, तो फिर ये खिलौने ही मालूम पड़ेंगे, फिर इनसे सुखी नहीं हो सकते। जहां से चेतना आगे बढ़ जाती है, फिर उस तल के सुख बेमानी हैं।
आदमी सुखी नहीं हो सकता पशु के ढंग से। लेकिन सब आदमी उसी ढंग से सुखी होने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए सिर्फ दुखी होते हैं। वह कोई उपाय न रहा। चेतना पीछे नहीं लौट सकती। चेतना और आगे जा सकती है।
मृत्यु की छाया जब तक बनी रहेगी, आदमी सुखी नहीं हो सकता। तो क्या किया जाए? एक तो उपाय यह है कि शरीर को जितनी देर तक बचाया जा सके, बचाया जाए; ताकि मृत्यु दूर हटाई जा सके। लेकिन कितना ही हटाओ मौत को दूर, दूर भी हट जाए तो भी खड़ी रहती है। उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। चार दिन और हट जाए, आठ दिन
और हट जाए, आदमी अस्सी साल न जीकर सौ साल जीए, कि डेढ़ सौ साल जीए, इससे कोई भेद नहीं पड़ता। मौत पीछे भी हट जाए, तो भी खड़ी रहती है।
. और सच तो यह है, आदमी जितनी ज्यादा देर जीएगा, मौत का बोध उतना सघन हो जाएगा। अगर दस साल का बच्चा मर जाए, तो उसे मौत का कोई खास पता नहीं होता। चालीस साल का जवान मर जाए, तो अभी उसे मौत की थोड़ी-थोड़ी झलक मिलनी शुरू हुई थी। अस्सी साल का बूढ़ा आदमी मरता है, तो मरने के बहुत पहले मौत में काफी बुरी तरह डूब चुका होता है। जिस दिन डेढ़ सौ साल का आदमी मरता है, उस दिन और भी ज्यादा मौत...। अगर हम आदमी को हजार साल जिंदा रखने में सफल हो जाएं, तो मौत की जो छाया है, और सघन हो जाएगी, और भारी हो जाएगी। क्योंकि जितनी उम्र बढ़ेगी, जितना अनुभव बढ़ेगा, उतने ही जीवन के सब खिलौने बेकार होते चले जाएंगे। और एक जगह आएगी कि सिर्फ मौत ही एकमात्र अर्थ रह जाएगा, बाकी सब अर्थ खो जाएगा।
इसलिए हमारे बीच जो सबसे ज्यादा बुद्धिमान आदमी है, वह सबसे ज्यादा मौत के प्रति सचेतन हो जाता है। अगर बुद्ध को रास्ते पर मरे हुए आदमी को देख कर खयाल उठा कि जीवन बेकार है...। आपको नहीं उठता। आपको रोज रास्ते पर मरे हुए आदमी मिलते हैं। आपको इतना ही खयाल आता है : बेचारा! उस पर दया आती है, अपने पर नहीं। और मन में थोड़ी प्रसन्नता भी होती है कि चलो, हम तो अभी जिंदा हैं। तो बाजार की तरफ कदम और जोर से बढ़ जाते हैं कि हम तो अभी जिंदा हैं। हर मरा हुआ आदमी आपको सिर्फ इतनी ही खबर देता है कि आप अभी जिंदा हैं। बुद्ध को मरे हुए आदमी को देख कर खबर मिली कि मैं भी मर गया इसके साथ।
आयरिश कवि मुनरो ने लिखा है कि जब भी कोई मरता है, तो मैं ही मरता हूं। और इसलिए कभी बाहर पूछने को मत भेजो कि किसकी अरथी गुजरती है; मेरी ही अरथी गुजरती है।
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