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ताओ उपनिषद भाग २
औषधि उनके काम की है जो बीमार हैं। लेकिन भूल कर भी स्वस्थ लोगों को औषधि मत पिलाने लगना। नीति उनके काम की है, जो अनीति में भरे हैं और पड़े हैं। लेकिन जो धर्म को उपलब्ध होते हैं, उनसे नीति वैसे ही छुट जाती है जैसे अनीति छूट जाती है। पक्ष छूट जाते हैं।
नैतिक चिंतन तो पक्ष करता है। इसलिए नैतिक चिंतन कभी निष्पक्ष नहीं होता। नैतिक चिंतन तो साफ-साफ निर्णय करता है—यह ठीक है और यह गलत है। गणित से चलता है, हिसाब रख कर चलता है। कभी-कभी हिसाब सीमा के बाहर चला जाता है, तो भी हिसाब से ही चलता है। क्या करना है, क्या नहीं करना है, वह सब हिसाब रखता है। धर्म कोई हिसाब नहीं रखता। शाश्वत में प्रतिष्ठा जिसकी हो गई, वह फिर उस प्रतिष्ठा पर ही सब कुछ छोड़ देता है। और वह जहां ले जाए शाश्वत नियम–चाहे पूर्व तो पूर्व और चाहे पश्चिम तो पश्चिम; जहां ले जाए, अंधेरे में या प्रकाश में वह शाश्वत नियम जहां ले जाए, उस पर ही अपने को छोड़ देता है।
इस फर्क को हम ऐसा समझें कि एक डांड से खेने वाला नाविक है। वह पतवार चलाता है और अपनी नौका को खेता है। सारा श्रम उसे करना होता है। एक और नाविक भी है, जिसने एक नियम खोज लिया कि खुद पतवार चलाने की कोई जरूरत नहीं है। हवाएं, पाल बांध दो, और नाव को ले जाती हैं। तो वह पाल बांध लेता है, पतवार अलग रख देता है, हवाएं उसकी नाव को चलाने लगती हैं।
नैतिक व्यक्ति पतवार से नाव चलाता है पूरे वक्त; बाएं, दाएं, सब उसे हिसाब रखना पड़ता है। पूरे वक्त श्रम उठाना पड़ता है। नाव और नदी के बीच एक संघर्ष है, नाविक और नदी के बीच एक दुश्मनी है। लड़ना पड़ता है। फिर वह भी है, जिसने पाल बांध लिया। अब सिर्फ उसे हवाओं के ऊपर अपने को छोड़ देने की हिम्मत भर जुटानी होती है। फिर हवाएं उसकी नाव को ले जाने लगती हैं।
धार्मिक व्यक्ति दूसरी तरह का व्यक्ति है, जिसने अपना पाल बांध लिया है नाव में और जिसने परमात्मा की या शाश्वतता की हवाओं को कहा कि बस अब जहां ले जाओ। अब जहां पहुंच जाए, वही मुकाम है। और नाव अगर मझधार में डूब जाए, तो वही मंजिल है। अब कोई किनारा नहीं है। अब तो जो मिल जाए, वही किनारा है। अब अपना कोई चुनाव नहीं है कि वहां पहुंचूं; और अगर वहां नहीं पहुंचा, तो दुखी होऊंगा; और वहां पहुंचा, तो सुखी हो जाऊंगा। धार्मिक व्यक्ति कहीं पहुंचने की चेष्टा में नहीं है। पहुंच गया।
नैतिक व्यक्ति कहीं पहुंचने की चेष्टा में लगा है। तो नैतिक व्यक्ति तो पक्षपाती होगा। इसलिए नैतिक व्यक्ति कभी सहिष्णु नहीं हो सकता। और अगर उसकी सहिष्णुता भी होगी, तो थोपी हुई और आरोपित होगी, कल्टीवेटेड होगी। सम्हाल-सम्हाल कर वह सहने की कोशिश कर सकता है। लेकिन सहिष्णुता उसकी सहज नहीं हो सकती। शाश्वत को जान कर जो सहिष्णुता आती है, वह निष्पक्ष कर जाती है।
कठिन है यह बात; क्योंकि हमें तो नैतिक तक होना कठिन है। लाओत्से कहीं और दूर की बात कर रहा है। वह कह रहा है, नैतिकता भी एक बीमारी है। वह कह रहा है कि जब तक द्वंद्व है-यह ठीक और यह गलत-तब तक बेचैनी रहेगी ही। अगर मुझे दिखता है कि यह ठीक और यह गलत, तो बेचैनी रहेगी।
इसलिए तथाकथित धार्मिक आदमी जो हैं, जिन्हें नैतिक आदमी कहना चाहिए, वे बड़े बेचैन रहते हैं। वे कहते हैं, यह गलत हो रहा है, वह ठीक हो रहा है। सारे संसार में जो गलत और ठीक हो रहा है, सबकी चिंता उन्हीं को होती है। उनकी बेचैनी का कोई अंत नहीं है। रातें उनकी हराम हो जाती हैं, नींद उनकी नष्ट हो जाती है। कहां क्या गलत और कहां क्या सही हो रहा है, सब का हिसाब उनके पास है। और सारे जगत में ठीक होना चाहिए, इसके लिए उनकी चिंता इतनी ज्यादा होती है कि इसी चिंता में घुल-घुल कर वे मर जाते हैं। जगत में कुछ ठीक होता या नहीं होता उनकी चिंता से, वह दिखाई नहीं पड़ता।
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