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ताओ उपनिषद भाग २
वह जो परिवर्तित हो रहा था, उसके साथ कोई भी आशाएं बांधीं, तो कष्ट होगा। प्रेम भी एक बहाव है। और गंगा एक ही घाट पर नहीं रुकी रह सकती। और प्रेम भी एक ही घाट पर रुका नहीं रह सकता। आज मां के साथ प्रेम है, कल किसी और के साथ होगा। आज मां बांध कर दुखी होगी; कल पत्नी बांधने लगेगी और दुखी होगी। जो भी बांधेगा, वह दुखी होगा। परिवर्तन को बांधने की जो भी चेष्टा करेगा, वह दुखी होगा। फिर असहिष्णुता पैदा होगी, फिर बेचैनी पैदा होगी। फिर सहने की क्षमता बिलकुल कम हो जाएगी।
हम सब असहिष्णु हैं, हम कुछ भी सह नहीं सकते। अगर मैं किसी को प्रेम करता हूं और मैं जिसे प्रेम करता हूं वह किसी दूसरे की तरफ प्रेम भरी आंख से देख ले, तो मैं विक्षिप्त हो जाता हूं। सह नहीं पाता।
लाओत्से कहता है, जो इस शाश्वत नियम को जान लेता है, वह सहिष्णु है। क्योंकि वह जानता है, परिवर्तन के जगत में जो भी है, वह सभी परिवर्तित होता है। वहां कुछ भी ठहरता नहीं। वहां प्रेम भी ठहरता नहीं। वहां कोई आशा बांध कर नहीं जीना चाहिए। कोई जीए, तो दुखी होगा।
_ आप उलटे-सीधे चलेंगे, गिर पड़ेंगे, पैर टूट जाएगा, तो आप ग्रेविटेशन को, गुरुत्वाकर्षण को गाली नहीं दे सकते और न किसी अदालत में मुकदमा चला सकते हैं। और न आप परमात्मा से यह कह सकते हैं कि कैसी पृथ्वी तूने बनाई कि जरा ही संतुलन खोओ कि पैर टूट जाते हैं। यह गुरुत्वाकर्षण न होता तो अच्छा था!
गुरुत्वाकर्षण आपका पैर नहीं तोड़ता; नियम को न जान कर आप जो करते हैं, उससे पैर टूट जाता है। आप सम्हल कर चलते रहें तो गुरुत्वाकर्षण आपके पैर को तोड़ता नहीं, बल्कि सच तो यह है कि गुरुत्वाकर्षण के कारण ही आप चल पाते हैं। नहीं तो चल ही नहीं सकेंगे।
नियम को जो जान लेता है, वह नियम के विपरीत आशाएं नहीं बांधता। जो जान लेता है कि परिवर्तन का नियम ही कहता है कि कुछ भी ठहरेगा नहीं। इसलिए जहां भी मैं ठहरने की इच्छा करूंगा, वहीं कठिनाई और जिच पैदा हो जाएगी। वहीं ग्रंथि बन जाएगी, वहीं अड़चन खड़ी हो जाएगी। जो व्यक्ति शाश्वत को जान लेता है, वह परिवर्तन को पहचान कर सहिष्णु हो जाता है। आज सम्मान है, कल अपमान है। तो सम्मान को पकड़ कर नहीं बैठता; जानता है कि सम्मान आज है, कल अपमान हो सकता है। आज आदर है, कल अनादर हो सकता है। क्योंकि यहां कोई भी चीज ठहरती नहीं, और आदर थिर नहीं हो सकता। और अनादर भी थिर नहीं होगा। वह भी आज है और कल नहीं हो जाएगा। जब ऐसा कोई देख पाता है, तो असहिष्णुता कैसी?
आप कल मुझे सम्मान दे गए, आज गालियां लेकर आ गए। असहिष्णुता पैदा होती है, क्योंकि मैं सोचता था, आज भी सम्मान लेकर ही आएंगे। आपके कारण नहीं, आपकी गालियों के कारण कोई पीड़ा नहीं पैदा होती; मेरी भ्रांत अपेक्षा टूटती है, इसलिए। क्योंकि मैं सोचता था, मान कर चलता था कि कल जो पैर छू गया, वह आज भी पैर ही छूने आएगा।
किसने कहा था मुझे कि यह आशा मैं बांधूं? और इस बदलते हुए जगत में कौन सा कारण था इस आशा को बांधने का? कल का गंगा का पानी कितना बह गया! कल के आदमी भी सब बह गए! कल का सम्मान-सत्कार भी बह गया होगा। चौबीस घंटे में क्या नहीं हो गया है। कितने तारे बने और बिखर गए होंगे। और कितने जीवन जन्मे और खो गए होंगे! इस चौबीस घंटे में इतना विराट परिवर्तन सारे जगत में हो रहा है, कि एक आदमी जो मेरे पैर छुने आया था, आज गाली लेकर आ गया, इस परिवर्तन को परिवर्तन जैसा कहने की भी कोई जरूरत है? जहां इतना सब बदल रहा हो, वहां इस आदमी का न बदलना ही हैरानी की बात थी। इसके बदल जाने में तो कोई हैरानी नहीं है। यह तो बिलकुल नियमानुसार है। लेकिन अगर मेरी अपेक्षा थी कि कल भी आदर मिलेगा, तो मेरी अपेक्षा टूटेगी। और वही पीड़ा और वही मेरा दुख बनेगी। और उसके कारण ही असहिष्णुता पैदा होती है।
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