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ताओ का द्वार-महिष्णुता व निष्पक्षता
सहिष्णु का अर्थ है : जो भी हो रहा है, परिवर्तन के जगत में होगा ही, इसकी स्वीकृति। जो भी हो रहा है। आज जीवन है, कल मृत्यु होगी। अभी सुबह है, अभी सांझ होगी। और अभी सब कुछ प्रकाशित था, और अभी सब कुछ अंधेरा हो जाएगा। और सुबह हृदय में फूल खिलते थे, और सांझ राख ही राख भर जाएगी। यह होगा ही। न तो सुबह के फूल को पकड़ने का कोई कारण है और न सांझ की राख को बैठ कर रोने की कोई वजह है।
. परिवर्तन के सूत्र को जो ठीक से जान लेता है और अपने को उससे नहीं जोड़ता, बल्कि उससे जोड़ता है जो नहीं बदलता...। सिर्फ एक ही चीज हमारे भीतर नहीं बदलती है, वह है हमारा साक्षी-भाव। सुबह मैंने देखा था कि फूल खिले हैं हृदय में, सब सुगंधित था, सब नृत्य और गीत था। और सांझ देखता हूं कि सब राख हो गई, सुर-ताल सब बंद हो गए, सुगंध का कोई पता नहीं, स्वर्ग के द्वार बंद हो गए और नरक में खड़ा हं। सब तरफ लपटें हैं और दुर्गंध है; कुछ भी सुबह जैसा नहीं रहा। सिर्फ एक चीज बाकी है : सुबह भी मैं देखता था, अब भी मैं देखता हूं। सुबह भी मैंने जाना था कि फूल खिले और अब मैं जानता हूं कि राख हाथ में रह गई है। सिर्फ जानने का एक सूत्र शाश्वत है। एक दिन जवान था, एक दिन बूढ़ा हो गया हूं। एक दिन स्वस्थ था, एक दिन अस्वस्थ हो गया हूं। एक दिन आदर के शिखर पर था, एक दिन अनादर की खाई में गिर गया हूं। एक सूत्र शाश्वत है कि एक दिन आदर जानता था, एक दिन अनादर जाना। जानना भर शाश्वत है; बाकी सब बदल जाता है। सिर्फ द्रष्टा शाश्वत है; विटनेसिंग, चैतन्य शाश्वत है।
तो लाओत्से जब कहता है कि शाश्वत नियम को जो जान लेता है वह सहिष्णु हो जाता है, तो वह यह कह रहा है कि जो साक्षी हो जाता है वह सहिष्णु हो जाता है। साक्षी से इंच भर भी हटे कि पीड़ा और परेशानी का जगत प्रारंभ हुआ। एक क्षण को भी जाना कि परिवर्तन के किसी हिस्से से मैं जुड़ा है, एक क्षण को भी तादात्य हुआ कि शाश्वत से पतन हो गया।
'जो शाश्वत नियम को जान लेता है, वह सहिष्णु हो जाता है; सहिष्णु होकर वह निष्पक्ष हो जाता है।'
सहिष्णुता का अर्थ हुआ कुछ भी हो, असंतोष का उपाय नहीं है। कुछ भी हो–बेशर्त कुछ भी हो-संतोष मेरी स्थिति है। सहिष्णु का अर्थ हुआ कि मेरा संतोष किन्हीं कारणों पर निर्भर नहीं है।
एक आदमी कहता है, बड़ा संतोष है, क्योंकि बैंक में बैलेंस है। एक आदमी कहता है, बड़ा संतोष है; बच्चे हैं, पत्नी है, भरा-पूरा घर है। एक आदमी कहता है, बड़ा संतोष है; प्रतिष्ठा है, सम्मान है, लोग आदर देते हैं।
ये कोई भी संतोष नहीं हैं। ये कोई भी संतोष नहीं हैं, क्योंकि ये सब सकारण हैं। कल सुबह एक ईंट खिसक जाएगी इस भवन से और असंतोष ही असंतोष हो जाएगा। यह संतोष का धोखा है।
संतोष का अर्थ है : अकारण। एक आदमी कहता है, मैं संतोषी हूं, संतोष है-कोई कारण से नहीं। शाश्वत को परिवर्तन से पृथक अनुभव करता हूं; शाश्वत में ठहरा हूं, परिवर्तन को पहचान लिया है। कारण हटाया नहीं जा सकता, कारण किसी के हाथ में नहीं है अब-अकारण, अनकंडीशनल, बेशर्त। सहिष्णुता या संतोष बेशर्त घटनाएं हैं।
बुद्ध को किसी ने आकर पूछा है कि आपके पास कुछ दिखाई तो नहीं पड़ता, फिर भी आप बड़े प्रसन्न मालूम पड़ते हैं। स्वाभाविक है उसका प्रश्न। कुछ दिखाई पड़ता हो, तो प्रसन्नता समझ में आती है। बुद्ध के पास कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। वे एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं। उनकी प्रसन्नता बेबूझ है। वह आदमी कहता है कि आप क्या मुझे समझाएंगे थोड़ा? सिर्फ पागल आदमी ही बिना कारण के ऐसा आनंदित हो सकता है। आप पागल भी दिखाई नहीं पड़ते। आप कौन हैं? लगता है ऐसा कि जैसे सारी पृथ्वी का साम्राज्य आपका हो। आप कोई सम्राट हैं? बुद्ध ने कहा, नहीं। उस आदमी ने पूछा, फिर क्या आप कोई देव हैं, जो पृथ्वी पर उतर आए? बुद्ध ने कहा कि नहीं, मैं देव
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