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ताओ का द्वार-सहिष्णुता व निष्पक्षता
पहले कि हम घर की बुनियादें रखेंगे, वह भूमि बदल जाएगी जिस पर हमने बुनियादें खोदनी चाही थीं। और जब तक हम बुनियाद के पत्थर रख पाएंगे, तब तक वह आधार तिरोहित हो जाएगा जिस पर हमने सहारा लिया था।
इसलिए जो भी व्यक्ति परिवर्तन के जगत में अपने को जोड़ेगा, दुख उसकी नियति है। दुख का अर्थ है : उसकी सभी आशाएं टूट जाएंगी और उसके सभी सपने खंडित हो जाएंगे। और जितने भी इंद्रधनुष वह फैलाएगा आशाओं के, अपेक्षाओं के, उतने ही उसके हाथ रिक्त होंगे; और उतनी ही दीनता उसके ऊपर होगी; उतनी ही पीड़ा, उतना ही संताप उसके जीवन का अनिवार्य अंग बन जाएगा। दुख का अर्थ है परिवर्तन से अपने को जोड़ लेना; आनंद का अर्थ है शाश्वत से अपने को संयुक्त कर लेना। दोनों हैं। हमारे ऊपर निर्भर है कि हम किससे अपने को जोड़ लेते हैं।
शाश्वत नियम का अर्थ है : जो भी परिवर्तन दिखाई पड़ रहा है, उससे विपरीत; जो भी दिखाई पड़ रहा है, उससे विपरीत। दिखाई पड़ने वाले में जो छिपा है, अदृश्य है। और जब हम छुते हैं, तो जो छूने में आता है, वह नहीं; बल्कि जो छूने में नहीं आता, वह। - एक शब्द मैं बोलता हूं या वीणा का एक तार छेड़ देता हूं, आवाज गूंज उठती है। एक स्वर कंपित होता है, आकाश उससे आंदोलित होता है, आपके कान पर उसका संघात पड़ता है, आपके हृदय में भी उसकी तरंग प्रवेश कर जाती है। फिर थोड़ी देर में वह स्वर खो जाएगा; क्योंकि स्वर परिवर्तन का हिस्सा है। थोड़ी देर पहले नहीं था; अब है; थोड़ी देर बाद फिर नहीं हो जाएगा। थोड़ी देर बाद स्वर खो जाएगा, झंकार लीन हो जाएगी, शब्द शून्य हो जाएगा। फिर सन्नाटा छा जाएगा। तार कंपेगा, ठहरता जाएगा, ठहर जाएगा। हृदय कंपित होगा, रुक जाएगा। स्वर सुनाई पड़ेगा; फिर शांति, सन्नाटा रह जाएगा।
स्वर परिवर्तन है। स्वर के पहले जो शून्यता थी, वह शाश्वतता है। और स्वर के बाद भी फिर जो शून्यता घिर जाएगी, वह शाश्वतता है। और स्वर भी जिस शून्यता में तरंगित हुआ, स्वर भी जिस शून्यता में गूंजा, वह भी शाश्वत है। प्रत्येक घटना शून्य में घटती है। शून्य से ही जन्मती है और शून्य में ही लीन हो जाती है।
लाओत्से कहता है, इस शाश्वत को जान लेना ही ताओ है। इस शाश्वत को जान लेना ही धर्म है। अब हम उसके सूत्र को समझें। 'जो शाश्वत नियम को जान लेता है, वह सहिष्णु हो जाता है। ही हू नोज दि इटरनल लॉ इज़ टॉलरेंट।'
शायद यह कहना ठीक नहीं कि जो शाश्वत नियम को जान लेता है, वह सहिष्णु हो जाता है। कहना यही ठीक होगा कि ही हू नोज दि इटरनल लॉ इज़ टॉलरेंट। हो जाता है नहीं, जो शाश्वत नियम को जान लेता है, वह सहिष्णु है। उसे कुछ करना नहीं पड़ता सहिष्णु-होने के लिए। शाश्वत को जानते ही सहिष्णुता आ जाती है। क्यों? हमारी असहिष्णुता क्या है? हमारा अधैर्य क्या है?
वह जो परिवर्तित हो रहा है, वह कहीं परिवर्तित न हो जाए, यही तो हमारा अधैर्य है। वह जो बदल रहा है, वह कहीं बदल ही न जाए, यही तो हमारा संताप है। वह जो बदल रहा है, वह भी न बदले, यह हमारी आकांक्षा है। इसलिए हम सब बांध कर जीना चाहते हैं : कुछ भी बदल न जाए।
मां का बेटा बड़ा हो रहा है। वह खुद उसे बड़ा कर रही है। लेकिन जैसे-जैसे बेटा बड़ा हो रहा है, मां से दूर जा रहा है। बड़े होने का अनिवार्य अंग है। वह मां ही उसे बड़ा कर रही है; अर्थात मां ही उसे अपने से दूर भेज रही है। फिर छाती पीटेगी, फिर रोएगी। लेकिन बेटे को बड़ा करना होगा। प्रेम बेटे को बड़ा करेगा। और जो प्रेम बेटे को बड़ा करेगा, बेटा उसी प्रेम पर पीठ करके एक दिन चला जाएगा। तो मां जब बेटे को बड़ा कर रही है, तब वह बड़े सपने बांध रही है कि यह प्रेम सदा उस पर बरसता रहेगा! और उसने इतना किया है, यह बेटा भी उसके लिए इतना ही करेगा! हजार-हजार सपने बनाएगी। फिर वे सब सपने पड़े रह जाएंगे और बिखर जाएंगे।
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