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ताओ उपनिषद भाग २
ने कही है।
विपरीत
श्री
प्रतिकूल हो, जहां पानी ऊपर की तरफ जाता हो और जहां आग नीचे की तरफ बहती हो और जहां प्रोटोन उलटी परिक्रमा करते हों।
यह तो अभी परिकल्पना है। लेकिन यह सबल है; क्योंकि जिन आदमियों ने कही है, वे कोई मिस्टिक, कोई रहस्यवादी नहीं हैं, कोई कवि नहीं हैं। और उनके कहने का कारण भी है, क्योंकि इस जगत में भी विपरीत के बिना कुछ नहीं चलता। तो इस बात की संभावना हो सकती है कि जिस जगत को हम जानते हैं, इससे विपरीत जगत भी हो, तभी यह पूरा विश्व संतुलित रह सके, तराजू के दोनों पलड़े संतुलित रह सकें। विज्ञान कब उसे सिद्ध कर पाएगा, नहीं कहा जा सकता। लेकिन धर्म सदा से ही यह मानता रहा है कि संसार के प्रतिकूल मोक्ष की संभावना है। ठीक संसार से विपरीत नियम वहां काम करते हैं।
जीसस ने कहा है, जो यहां प्रथम है, वहां अंतिम हो जाएगा; जो यहां अंतिम है, वहां प्रथम हो जाएगा। जो यहां इकट्ठा करेगा, वहां उससे छीन लिया जाएगा; जो यहां बांट देगा, वहां उसे मिल जाएगा।
यह कवि की भाषा में विपरीत की सूचना है कि वहां विपरीत नियम काम करेंगे: जो यहां अंतिम है, वहां प्रथम होगा। वहां यही नियम काम नहीं करेंगे; इनसे ठीक विपरीत नियम काम करेंगे। जीसस की भाषा कवि की भाषा । है। समस्त धर्म काव्य की भाषा में बोला गया है। शायद उचित भी यही है। क्योंकि विज्ञान की भाषा में जीवंतता खो जाती है, सुगंध तिरोहित हो जाती है, लय नष्ट हो जाती है, गीत समाप्त हो जाता है। मुर्दा आंकड़े रह जाते हैं।
और लाओत्से जिसे शाश्वत नियम कह रहा है, उस नियम को हम संक्षेप में खयाल में ले लें, तो उसके सूत्र में प्रवेश हो जाए।
वह कह रहा है, एक तो जगत है परिवर्तन का, जहां सब चीजें बदलती हैं। लेकिन यही जगत नहीं है काफी। बल्कि इस जगत के होने के लिए भी एक जगत चाहिए, जहां परिवर्तन न हो, इससे विपरीत जहां शाश्वतता हो, जहां इटरनिटी हो, जहां कोई चीज बदलती न हो, जहां कोई चीज तरंगित न होती हो, जहां सब शून्य और परम शांत हो, जहां कोई भी कंपन न हो।
यहां सब चीजें कंपती हुई हैं। अगर हम विज्ञान से पूछे, तो विज्ञान कहेगा, इस जगत में जो कुछ भी है, सभी कुछ वाइब्रेशंस हैं, तरंगें हैं। तरंग का अर्थ है सभी कुछ कंपित है, सब कंप रहा है, हिल रहा है। कोई भी चीज ठहरी हुई नहीं है, एक क्षण भी ठहरी हुई नहीं है। जितनी देर में मैं बोलता हूं, उतनी देर में भी वह बदल जाती है। यह जगत एक गहरी बदलाहट है। इसे हम जगत न कहें, एक बदलाहट की प्रक्रिया ही कहें-एक प्रवाह, एक फ्लक्स।
लाओत्से कहता है, ठीक इस जगत के नियम के प्रतिकूल, इसी जगत में छिपा हुआ वह सूत्र भी है, जहां सब सदा ठहरा हुआ है, जहां कुछ भी बदलता नहीं, जहां कोई तरंग नहीं है-निस्तरंग, वेवलेस! उसे वह कहता है शाश्वत नियम! और अगर यह परिवर्तन संभव होता है, तो उसी शाश्वत नियम के संतुलन में। अगर वह शाश्वत नियम नहीं है, तो परिवर्तन भी संभव नहीं है। और हर चीज विपरीत से निर्मित है। तो आपके भीतर शरीर भी है और आपके भीतर अशरीर भी है। मैटर भी और एंटी-मैटर भी, प्रोटोन भी और एंटी-प्रोटोन भी। आपके भीतर परिवर्तन भी है, और वह भी जो शाश्वत है।
लाओत्से कहता है, जो परिवर्तन को ही अपना होना समझ लेता है, वह विक्षिप्त है। वह पीड़ित होगा, दुखी होगा, परेशान होगा। क्योंकि जिससे वह अपने को जोड़ रहा है, वह एक क्षण भी ठहरा हुआ नहीं है। वह उसके साथ घसिटेगा; और जितनी भी आशाएं निर्मित करेगा, सभी धूल-धूसरित हो जाएंगी। क्योंकि परिवर्तन के साथ कैसी आशा? परिवर्तन का कोई भरोसा ही नहीं है। परिवर्तन का अर्थ ही है कि जिसका कोई आश्वासन नहीं है। परिवर्तन का अर्थ ही है कि जहां हम घर नहीं बना सकते-रेत पर घर नहीं बना सकते। वहां सब बदल रहा है। और इसके
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