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ताओ उपनिषद भाग २
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बुद्ध ने कहा, मैं कहीं भी नहीं जाऊंगा। और जिसे तुम समझते थे मेरा होना, वह तो सिर्फ संघात है। वह तो केवल रेखाओं का जोड़ है। वह तुम्हारे सामने बिखर कर यहीं मिट्टी में मिल जाएगा। तुम ही उसे दफना आओगे। जिसे तुम समझते हो मेरा होना, वह तो यहीं मिट्टी में मिल जाएगा। वह रूप तो इसी मिट्टी से निर्मित हुआ है। और जो मैं हूं, उसका कहीं कोई आना-जाना नहीं है। लेकिन उसे तुम नहीं जानते हो।
प्रत्येक रूप के भीतर अरूप छिपा है। बिना अरूप के रूप नहीं हो सकता; जैसे मैंने कहा, बिना आकाश के बादल नहीं हो सकते। अरूप अनिवार्य है रूप के लिए।
लेकिन रूप हमें दिखाई पड़ता अरूप हमें दिखाई नहीं पड़ता।
लाओत्से कहता है, 'सभी चीजें रूपायित होकर सक्रिय होती हैं; लेकिन हम उन्हें विश्रांति में पुनः वापस लौटते भी देखते हैं।'
यही देख लेना धर्म है।
'जैसे वनस्पति-जगत लहलहाती वृद्धि को पाकर फिर अपनी उदगम-भूमि में लौट जाता है।'
एक पौधा निर्मित होता है। फूल खिलते हैं, सुगंध आती है, हवाओं से टक्कर लेता है, सूरज को छूने की आकांक्षा से आकाश की यात्रा पर निकलता है। कितना रंग! कितना रूप ! कितनी आकांक्षा! कितना दृढ़ विश्वास ! फिर सब खो जाता है । फिर साल छह महीने बाद वहां जाकर देखें, तो कुछ भी नहीं है। मिट्टी वापस मिट्टी में गिर गई। जैसे एक लहर ने छलांग ली हो और फिर वापस गिर गई हो। लेकिन जब यह पौधा होता है और जब इसमें फूल खिलते हैं, जब यह रूपायित होता है, तब हमें पीछे का खाली आकाश दिखाई नहीं पड़ता ।
लाओत्से वही कह रहा है, लेकिन सब चीजें वापस लौट जाती हैं।
जिस व्यक्ति को चीजों का वापस लौटना भी दिखाई पड़ने लगता है, वही व्यक्ति निष्क्रियता की चरम सीमा
को छू पाएगा। और वही व्यक्ति विश्रांति के आत्यंतिक आधार के साथ जुड़ जाएगा।
'उदगम को लौट जाना विश्रांति है।'
यह तो दृष्टि की बात हुई। यह तो दृष्टि उपलब्ध होनी चाहिए। यह दिखाई पड़ना चाहिए।
एक पौधे को तो हम देख भी सकते हैं आर-पार कि कल यह मिट जाएगा। लेकिन यह पौधे को हम देख रहे हैं। एक बादल को तो हम देख भी सकते हैं कि घड़ी भर बाद बिखर जाएगा। लेकिन यह बादल को हम देख रहे हैं। जिस दिन कोई व्यक्ति इस अंतर्दृष्टि को स्वयं पर भी लागू कर लेता है, जिस दिन वह कहता है कि मुझमें भी जो दिखाई पड़ रहा है - यह मेरी देह, और यह मेरा मन, और ये मेरे विचार, और यह मेरी अस्मिता, मेरा अहंकार, यह मेरी बुद्धि - यह जो कुछ भी मुझे दिखाई पड़ रहा है मुझमें, यह भी वापस उदगम में गिर जाएगा, वैसे ही जैसे सब रूप गिर जाते हैं। जब कोई व्यक्ति इस दृष्टि को अपने पर भी लौटा लेता है, तब लाओत्से कहता है, उदगम को लौट
विश्रांति है। और ऐसे अनुभव में जो भर जाता है, वह लौट गया अपने उदगम को । जिसे यह दिखाई पड़ गया अपने भीतर कि मेरा भी सब जो भी रूपायित है, वह सब बिखर जाएगा; वह आज ही अपनी विश्रांति में लौट गया।
यह वचन बहुत कीमती है, 'टु रिटर्न टु दि रूट इज़ रिपोज ।'
वह जो मूल उदगम है, जो जड़ें हैं, वहां लौटने का जो बोध है, वह लौट जाना है। और अपनी जड़ों को, अपने उदगम को पा लेना परम विश्रांति है।
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वह जो बुद्ध के चेहरे पर शांति की छाया है, वह किसी ध्यान का परिणाम नहीं है, वह किसी मंत्र जप का परिणाम नहीं है। अगर एक व्यक्ति मंत्र को जपता रहे, तो भी चेहरे पर एक शांति आनी शुरू हो जाती है— कल्टीवेटेड, चेष्टा से निर्मित । अगर एक व्यक्ति को केमिकली शांत करना हो, तो किया जा सकता है। उसके