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निष्क्रियता, बियति व शाश्वत नियम में वापसी
सारे खून में अगर ट्रैक्वेलाइजर्स ही डाल दिए जाएं, तो चेहरे पर एक शांति आ जाएगी; लेकिन मुर्दा, मरी हुई, मरघट की शांति! बुद्ध के चेहरे पर जो जीवित शांति है, वह किसी क्रिया का फल नहीं है। वह उस उदगम में लौट जाने से जो रिपोज, जो विश्रांति मिलती है, वही है। बुद्ध को बैठा हुआ देखें, उनकी मूर्ति को देखें। तो जो भी उनकी मूर्ति को गौर से देखेगा, उसे लगेगा जैसे इस मूर्ति के भीतर भी कोई सेंटर है जिस पर यह पूरी मूर्ति उस केंद्र से जुड़ी है। यह .पूरी मूर्ति भी जैसे किसी केंद्र से जुड़ी है। कोई केंद्र सब चीजों को सम्हाले हुए है।
अगर आपको कोई देखे चलते, उठते, बैठते, तो ऐसा पता चलेगा कि आपके भीतर कोई केंद्र नहीं है। या बहुत केंद्र एक साथ हैं। एक भीड़ आपके भीतर है। एक बाजार भरा है; उसमें कई तरह के लोग हैं, बड़े विपरीत स्वर हैं। जो बादलों से अपने को जोड़ेगा, उसकी यही हालत हो जाएगी। आकाश तो एक है, बादल अनेक हैं। और जो
अभी छोटा बादल है, थोड़ी देर बाद बड़ा हो जाएगा। और जो अभी बड़ा बादल है, थोड़ी देर बाद टुकड़े-टुकड़े में बिखर जाएगा। और बादल के रूपों का भी कोई भरोसा है? अभी जो बादल बहुत सुंदर लग रहा था, क्षण भर बाद कुरूप हो जाएगा। बादल तो धुआं है, वह प्रतिपल रूप बदल रहा है।
तो जो व्यक्ति भी अपने को अपनी क्रियाओं से जोड़ता है, जो व्यक्ति भी अपने को अपनी उपलब्धियों से जोड़ता है, जो व्यक्ति भी अपने भीतर बादलों का ही इकट्ठा अहंकार है, वह व्यक्ति प्रतिपल एक भीड़ में डोल रहा है। जैसे ही किसी व्यक्ति को यह खयाल में आना शुरू हो जाता है...।
कठिन है यह खयाल में आना। और सिर्फ तात्विक चिंतन से नहीं खयाल में आएगा। मैं यह भी देख सकता हूं कि यह वृक्ष कल गिरेगा; यह देखना बहुत कठिन है कि कल मैं गिरूंगा। सभी लोग जानते हैं कि सभी लोग मरेंगे सिर्फ स्वयं को छोड़ कर। सभी लोग जानते हैं कि सभी हड्डी-मांस-मज्जा के पुतले हैं-स्वयं को छोड़ कर। स्वयं को हम जोड़ते ही नहीं कभी, वह हिसाब में ही नहीं है। उसे हम बचा कर ही चलते हैं। यह खयाल में ही नहीं आता कि इस सारे बदलते हुए रूप के जगत में मैं भी एक रूप हूं। बहुत पीड़ा होगी यह खयाल में लाना। उस पीड़ा को ही तपश्चर्या कहें। यह मानना कि मैं भी हड्डी-मांस-मज्जा हूं, यह जानना कि मैं भी कागज पर खींची गई रेखाओं की एक आकृति हूं, यह अनुभव करना, प्रतिपल इस अनुभव को स्मरण रखना कि धुएं का एक बादल हूं, अति कठिन है। क्योंकि यह अगर खयाल में रहे, तो अहंकार को खड़े होने की जगह कहां? फिर मैं अपनी प्रतिमा कैसे बनाऊं? मेरा फिर इमेज कहां बने? फिर मैं कौन हूँ?
खलील जिब्रान ने कहा है कि जब तक अपने को नहीं जानता था, तब तक समझता था एक ठोस प्रतिमा हूं। और जब अपने को जाना और मुट्ठी खोली, तो पाया कि हाथ में सिर्फ धुएं को मुट्ठी में बंद करके बैठा था।
हम सब की मुट्ठियों में भी धुआं बंद है। लेकिन इसे सुन लेते हैं, शायद बौद्धिक रूप से समझ में भी आ जाए; लेकिन अंतस्तल में प्रवेश नहीं होता। क्यों नहीं होता? क्योंकि हमने जो भी अपने चारों तरफ जिंदगी बना कर रखी है, अगर मैं यह जान लूं कि मैं मुट्ठी में बंद एक धुआं का टुकड़ा हूं, तो मेरे चारों तरफ जो मैंने बना कर रखा है वह अभी बिखर जाए। किसी ने मुझसे कहा है कि आप बहुत सुंदर हैं और मुझे आपसे प्रेम है। और अगर मुझे आज पता चले कि मैं एक धुएं का टुकड़ा हूं, तो मेरे प्रेम का क्या होगा? और किसी से मैंने कहा है कि मेरा प्रेम कोई कथा-कहानियों का प्रेम नहीं है, यह शाश्वत प्रेम है, मैंने किया है तो सदा करूंगा। अगर मुझे पता चले कि जिसने यह आश्वासन दिया है, वह खुद ही धुएं का एक पिंड है, उसके आश्वासनों का कोई भरोसा नहीं है, तो मेरे प्रेम का क्या होगा? मैंने अपने चारों तरफ जो इनवेस्टमेंट किए हैं जिंदगी में, वे सब मुझे कहेंगे कि ऐसी बातें मत सोचो, तुम काफी ठोस हो, तुम्हारे वचनों का अर्थ है, तुम्हारे वक्तव्य टिकेंगे। लोग गीत गाते हैं कि चांद-तारे नहीं रहेंगे, तब भी उनका प्रेम रहेगा। उस सब का क्या होगा? वह जो दूर अनंत पर हमने सपने फैला रखे हैं!
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