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विष्क्रियता, बियति व शाश्वत बियम में वापसी
हम किसी को कहते हैं कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, जैसे कि प्रेम कोई कर्म हो। अब तक दुनिया में कोई प्रेम कर नहीं सका है। प्रेम कोई कृत्य नहीं है कि आप कर लें। प्रेम या तो होगा या नहीं होगा; करने का कोई सवाल नहीं है। अगर है तो ठीक; नहीं है तो ठीक। चेष्टा करके आप प्रेम नहीं कर सकते हैं। प्रेम का क्रिया से कोई भी संबंध नहीं है। लेकिन भाषा में प्रेम भी क्रिया है। हम कहते हैं, मां बेटे को प्रेम करती है। मां और बेटे के बीच प्रेम होता है; करती नहीं है। करने का तो कोई उपाय ही नहीं है। हम तो प्रेम जैसी घटना को भी क्रिया बना लेते हैं। ठीक ऐसे ही हमने ध्यान को भी क्रिया बना लिया है। एक आदमी कहता है, मैं ध्यान करता हूं। मजबूरी है। भाषा सभी चीजों को क्रिया में बदल देती है। स्थितियों को भी क्रिया में बदल देती है।
इसलिए बड़ा विपरीत है यह सूत्र, 'निष्क्रियता की चरम स्थिति को उपलब्ध करें।'
उपलब्ध करने में क्रिया है। और निष्क्रियता की स्थिति पानी है। निष्क्रियता पानी है, तो उपलब्धि तो नहीं हो सकती। सब उपलब्धियां क्रियाएं हैं। धन पा सकते हैं आप, धन की उपलब्धि हो सकती है। यश पा सकते हैं, पद पा सकते हैं। वे सब क्रियाएं हैं। लेकिन निष्क्रियता कैसे पाइएगा?
लाओत्से का मतलब है कि हमारे भीतर दो तल हैं। एक तल पर क्रियाएं हैं; बादल हैं, लहरें हैं, तरंगें हैं। और ठीक उसी के नीचे गहराई में आकाश है। उसी आकाश में ये सारे बादल घिरे हैं। और वह आकाश असीम है। और ये बादल बड़े सीमित हैं। इन बादलों को पार करके देखने की क्षमता ही निष्क्रियता की उपलब्धि हो जाती है।
इसलिए दूसरे ही सूत्र में वह कहता है, इसी सूत्र के दूसरे हिस्से में, 'निष्क्रियता की चरम स्थिति को उपलब्ध करें; और प्रशांति के आधार से दृढ़ता से जुड़े रहें।'
और जब आपको दिखाई पड़ जाए आपके ही भीतर कि आकाश भी है, तो फिर बादलों में मत भटकें। और चाहे कितनी ही बादलों में यात्रा करें, लेकिन आकाश से सतत जुड़े रहें। स्मरण आकाश का ही रखें। कितने ही दूर निकल जाएं, लेकिन ध्यान सदा उस आकाश का ही रखें, जो भीतर अनुभव में हुआ है। कितने ही कर्म करें, कितने ही दौड़ते रहें, लेकिन ध्यान उसका ही रखें, जो भीतर नहीं दौड़ रहा है, कभी नहीं दौड़ा, जिसके दौड़ने का कोई उपाय ही नहीं है।
कभी आपने कोशिश की? कभी दौड़ कर देखें। आप ट्रेन पर सवार होते हैं। आपके भीतर कुछ ऐसा भी है, जो ट्रेन पर सवार नहीं होता। ट्रेन चलती है। आप भी ट्रेन के साथ गतिमान होते हैं। आपके भीतर कुछ ऐसा भी है, जिसमें कोई गति नहीं होती। आप एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंच जाते हैं। लेकिन आपके भीतर कुछ ऐसा भी है, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। आप कितने ही चलते-फिरते रहें, आपके भीतर एक अचल तत्व भी है।
। उस अचल, निष्क्रिय आकाश को ही सदा ध्यान में रखें। आपके ऊपर क्रोध के बादल आ गए, या कामवासना ने मन को धुएं से भर दिया, या लोभ का जहर फैल गया; तब भी इन बादलों के बीच पीछे छिपे आकाश को स्मरण रखें। क्योंकि बादल अभी नहीं थे, अभी हैं, अभी फिर नहीं हो जाएंगे। और जो क्षण भर को आया है और क्षण भर में चला जाएगा, उसके कारण विचलित होने का कोई भी कारण नहीं है। उससे विचलित वही होता है, जो भीतर के शांति के प्रगाढ़ आधार को भूल जाता है।
एक सूफी कथा है। एक सम्राट बूढ़ा हुआ। उसने अपने मंत्रिमंडल को बुलाया और उनसे कहा कि मैं बूढ़ा हुआ और मौत करीब आती है। अब तक मैंने ज्ञान की कोई कभी चिंता नहीं की। लेकिन मौत करीब आती है, तो ज्ञान की भी चिंता पैदा होती है। अगर मौत न होती, तो शायद दुनिया में ज्ञानी ही मुश्किल से होते। अगर मौत न होती, तो शायद धर्मों का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता था। अगर मौत न होती, तो तत्व-चिंतन की कोई जगह नहीं बन सकती थी। उस बूढ़े सम्राट ने कहा कि मन बहुत घबड़ाता है। और अब मैं कोई ऐसा आधार चाहता हूं, जहां इस घबड़ाहट
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