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________________ ताओ उपनिषद भाग २ और आदमी साधारण बैठा हो, तो कम कर्म करना पड़ता है; ठीक बुद्ध जैसा बन कर बैठ जाए, तो बहुत कर्म करना पड़ता है। वह कई तरह के उपाय करता है; सब असफल हो जाते हैं। क्योंकि कोई भी उपाय निष्क्रियता पाने में सफल नहीं हो सकता। उपाय का अर्थ ही है कर्म। तो कर्म अकर्म को पाने में कैसे होगा सफल? कोई रुकना चाहता हो, तो दौड़ने से कैसे रुकने तक पहुंचेगा? और कोई मरना चाहता हो, तो जीवन उसके लिए रास्ता नहीं है। कर्म से कोई कैसे अकर्म को पाएगा? तो वह युवक परेशान हो गया। उसने हुई-हाई के आश्रम में वृद्धजनों को जाकर पूछा कि मैं क्या करूं? मैं परेशान हो गया। मेरी बुद्धि तो अंत पर आ गई। मेरा तो समाप्त हो गया सोच-समझ सब। सब उपाय करके देख चुका हूं। आप हैं पुराने, आप गुरु के साथ बहुत दिन रहे हैं। और निश्चित ही आप भी इस परीक्षा से गुजरे होंगे। मुझे कुछ सलाह दें। यह मैं निष्क्रियता कैसे प्राप्त करूं? तो जिससे उसने पूछा था, उसने कहा कि जब तक मर ही न जाओ, तब तक निष्क्रियता प्राप्त नहीं होती। जीते जी कैसी निष्क्रियता? जीओगे, तो कर्म तो होगा ही। जीना क्रिया का ही नाम है। जीवन अर्थात सक्रियता। मर ही जाओ, तो ही परीक्षा में पास हो सकते हो। उस युवक ने सोचा, यह भी कोशिश कर ली जाए। वह दूसरे दिन सुबह जब गुरु के पास गया, तो गुरु ने पूछा कि पा लिया वह सूत्र? वह तत्क्षण वहीं गुरु के सामने गिर कर मर गया। गुरु उसके पास आया और उसने कहा कि जरा एक आंख खोलो। तो उसने एक आंख खोल कर गुरु को देखा। तो गुरु ने कहा कि मरे हुए लोग आंख खोल कर देखा नहीं करते। यह तुम किससे सीख कर आ गए हो? और सिखावन से कोई कभी सत्य को उपलब्ध नहीं होता। तो वह युवक रोने लगा और उसने कहा कि मैं सब उपाय कर चुका, और यह आखिरी उपाय था। अब कुछ करने को बचा नहीं। यह निष्क्रियता कैसे उपलब्ध हो? उसके गुरु ने कहा कि जब तक तुम पूछते हो कैसे, हाऊ, तब तक तुम कभी उपलब्ध न हो सकोगे। क्योंकि कैसे का मतलब ही क्या होता है ? उसका मतलब होता है : किस प्रकार, किस विधि से, किस प्रयत्न से, किस काम से मैं पा सकूँगा? तुम कर्म को ही पूछे चले जाते हो। निष्क्रियता, हुई-हाई ने कहा है, पाई नहीं जाती, निष्क्रियता मौजूद है। और निष्क्रियता पाने का कोई उपाय नहीं; वह मौजूद है। सिर्फ सक्रियता से ध्यान निष्क्रियता पर हट जाए। यह सिर्फ ध्यान के हटने की बात है। बादल से ध्यान आकाश पर हट जाए। आकाश को पाना नहीं है, आकाश है। और हमने उसे कभी खोया भी नहीं है। ज्यादा से ज्यादा हम भूल सकते हैं। और आकाश को बनाना भी नहीं है। और हमारे किसी प्रयत्न से वह बन भी न सकेगा। और हमारे प्रयत्न से जो बन जाए, वह आकाश नहीं होगा। इसलिए आत्मा को पाने के लिए कोई भी प्रयास नहीं है। और आत्मा को पाने के लिए कोई भी साधना नहीं है। सारी साधनाएं और सारे प्रयास, वह जो हमारे भीतर बादलों का जगत है, उस जगत से ध्यान को हटाने के लिए ही हैं। लाओत्से का यह सूत्र, 'निष्क्रियता की चरम स्थिति को उपलब्ध करें।' शब्दों के कारण भ्रांति पैदा करता है। इससे लगता है उपलब्ध करें, कुछ पाने को है। लेकिन यह भाषा की मजबूरी है। और लाओत्से पहले ही कह चुका है कि जो मैं कहना चाहता है, वह कहा नहीं जा सकता। और जो मैं कहूंगा, उसमें भूल हो जानी अनिवार्य है। हमारी सारी की सारी भाषा क्रिया पर निर्भर है। अगर एक आदमी मर जाता है, तो भी हम कहते हैं वह आदमी मर गया, जैसे मरना उनका कोई काम हो। मरना एक क्रिया है। हम कहते हैं फला आदमी मर गया, जैसे कि मरने का कोई काम उन्होंने किया हो। मरने के लिए आपको कुछ करना नहीं पड़ता। लेकिन हमारी पूरी भाषा क्रिया पर चलती है। चलेगी ही। हम जीवन को बादलों से ही जानते हैं। और वहां तो सब कर्म है, गति है। इसलिए जो भी हम...। 264
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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