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शाश्वत नियम में वापसी
निष्क्रियता, नियति
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लेकिन जब आकाश बादलों से घिरा होता है, तो आकाश बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता, बादल ही दिखाई पड़ते हैं। और जब मनुष्य भी वासनाओं से घिरा होता है, तो आत्मा बिलकुल दिखाई नहीं पड़ती, वासनाएं ही दिखाई पड़ती हैं।
और हर वासना सक्रियता में ले जाती है। जिन्होंने कहा है कि जब तक आदमी निर्वासना में न पहुंच जाए, डिज़ायरलेसनेस में न पहुंच जाए, तब तक आत्मा को न पा सकेगा, उनका प्रयोजन यही है। क्योंकि जब तक निर्वासना में न पहुंचें, तब तक निष्क्रियता में न पहुंचेंगे। हर वासना क्रिया का जन्म है। यहां वासना के पैदा होने का अर्थ ही यह है कि आप एक क्रिया की यात्रा पर निकल गए। चाहे स्वप्न में ही सही, चाहे वस्तुतः, आप कुछ करने में संलग्न हो गए। वासना जन्मी कि क्रिया शुरू हो गई, बादल घिर गए ।
जितने होंगे ज्यादा बादल, उतना ही आकाश दिखाई नहीं पड़ेगा। बादल बिलकुल न हों, तब आकाश दिखाई पड़ता है; या दो बादलों के बीच में दिखाई पड़ता है। दो वासनाओं के बीच में जो अंतराल होता है, उसमें कभी भीतर की आत्मा दिखाई पड़ती है। लेकिन हमारी वासनाएं ऐसी हैं कि अंतराल बिलकुल नहीं है। एक वासना समाप्त नहीं हो पाती, उसके पहले हम हजार पैदा कर लेते हैं। ऐसा कभी नहीं होता कि एक वासना समाप्त हो जाए और दूसरी अभी पैदा न हो और बीच में खाली जगह छूट जाए, जिसमें से हम अपने आकाश में झांक लें। एक वासना पूरी नहीं होती कि हजार को हम बो देते हैं। एक मरती है, तो हजार जन्म जाती हैं। आकाश हमारा सदा ही बादलों से भरा रह जाता है।
इसलिए आदमी अगर अपने को समझने की कोशिश करे, तो पाएगा, मैं सिर्फ क्रियाओं का एक जोड़ हूं। और हम सब ऐसा ही अपने को मानते हैं। अगर कोई आपसे पूछे कि आप क्या हैं, तो आप क्या बताएंगे ? बताएंगे कि आप ने क्या-क्या किया है, कितने मकान खड़े किए हैं, कितना धन अर्जित किया है, कितनी उपाधियां इकट्ठी की हैं। आप ने क्या किया है, वही आपका जोड़ है। तो आप अपने को बादल समझ रहे हैं; आकाश का आपको कोई पता नहीं है। क्योंकि आकाश का करने से कोई संबंध नहीं है। आकाश तो सिर्फ है । और उसके होने के लिए आपको कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। उसका होना किसी कर्म पर निर्भर नहीं है । प्रत्येक घटना में ये दोनों सूत्र एक साथ मौजूद हैं: क्रियाओं का जगत है और निष्क्रियता की आत्मा है।
लाओत्से कहता है, इस निष्क्रियता को जान लेना ही शाश्वत नियम को जान लेना है।
उसके सूत्र को हम समझें ।
'निष्क्रियता की चरम स्थिति को उपलब्ध करें; और प्रशांति के आधार से दृढ़ता से जुड़े रहें ।'
अपने ही भीतर निष्क्रियता की चरम स्थिति को उपलब्ध करें। इसका यह अर्थ नहीं है कि आप कुछ करें नहीं । जीवन है, तो कर्म तो होगा ही। जीवन है, तो कुछ न कुछ तो आप करते ही रहेंगे। अगर आप बिलकुल ही मूर्तिवत भी बैठ जाएं, तो वह बैठना भी कर्म ही है । और आप मुर्दे की तरह शवासन में लेट जाएं, वह लेट जाना भी कर्म ही है और आप सब छोड़ कर जंगल में भाग जाएं, वह भाग जाना भी कर्म ही है।
झेन फकीर हुई-हाई के पास एक युवक आया है। और वह उस युवक से कहता है, लाओत्से का यह सूत्र याद रखो : अटेन दि अटमोस्ट इन पैसिविटी, उस चरम को निष्क्रियता में उपलब्ध करो।
वह युवक सब तरह के उपाय करता है। वह दूसरे दिन सुबह आकर बिलकुल बुद्ध की पत्थर की मूर्ति होकर बैठ जाता है। हुई-हाई उसे हिलाता है और वह कहता है, हमारे मंदिर में पत्थर के बुद्ध काफी हैं। और ज्यादा जरूरत नहीं है। ऐसे नहीं चलेगा। अटेन दि अटमोस्ट इन पैसिविटी, निष्क्रियता में उसकी चरमता में प्रवेश करो। यह तो तुम ही बैठे हुए हो। और इस बैठने में तुम्हें कर्म करना पड़ रहा है।