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________________ तटस्थ प्रतीक्षा, अस्मिता-विसर्जन व अनेकता में एकता पहले विचार तो कर लूं-कि तुम ठीक कहते हो कि गलत कहते हो? यह रास्ता ठीक है कि नहीं? इस पर पहले भी महाजन गए हैं कि नहीं गए? जब घर में आग लगी हो और लपटें पकड़ लें, तो आदमी छलांग लगा कर बाहर हो जाता है। फिर रास्ता नहीं पूछता। जहां आंख पड़ जाती है, वहीं रास्ता बना लेता है। जैसे भी हो, बाहर निकलना महत्वपूर्ण हो जाता है, रास्ता महत्वपूर्ण नहीं रहता। यह ध्यान रखने की बात है, जब तक आपको रास्ता बहुत महत्वपूर्ण मालूम पड़ता है, उसका मतलब : घर में आग लगी है, इसका आपको अनुभव नहीं है। जब घर में आग लगती है, तो रास्ता महत्वपूर्ण नहीं होता, निकलना महत्वपूर्ण होता है। कोई भी रास्ता जो सामने पड़ जाए, आदमी उससे निकल जाता है। यह जितनी शांति से बैठ कर हम पूछते हैं : रास्ता क्या है? कहां से जाएं? कैसे जाएं? उसका मतलब यह है कि घर में लगी है आग, वह हमें दिखाई नहीं पड़ती।। गुरजिएफ कहता था कि पहले तुम ठीक से क्रोध ही कर लो। तो क्रोध सिखाता था कि कैसे क्रोध करो और क्रोध में कैसे पूरे उतर जाओ। कुछ भी मत रोको। और बड़े आश्चर्य की बात है कि जो भी व्यक्ति पूरे क्रोध में उसके पास उतरना सीख जाता, वह एक दिन आकर कहता : हैरानी की बात है, क्रोध के पीछे बड़ी शांति अनुभव होती है। एकदम सब शांत हो जाता है; जैसे तूफान आए और चला जाए और सब तरफ सन्नाटा हो जाए। तो पहली तो नैसर्गिक बात समझ लेनी चाहिए, जो लाओत्से कह रहा है। वह यह है कि हर सक्रियता के बाद अनिवार्य विश्राम। लेकिन सक्रियता पूर्ण होनी चाहिए-एक। लेकिन इतना काफी नहीं है समता के लिए। समता इससे भी गहरी बात है और एक अनुभव पर निर्भर है। जब एक आदमी देखता है कि क्रोध के बाद शांति आ जाती है, शांति के बाद क्रोध आ जाता है; सुबह के बाद सांझ आती है, सांझ के बाद सुबह आ जाती है; अंधेरा होता है, प्रकाश होता है, फिर अंधेरा हो जाता है; जब एक आदमी यह अनुभव कर पाता है कि यह द्वंद्व का खेल मेरे चारों तरफ चलता ही रहता है, तब उसे तत्काल एक और नई बात पता चलती है कि मैं इन दोनों से अलग हूं। अगर मैं देखू कि मुझ पर क्रोध आया, घना क्रोध आया, और फिर क्रोध चला गया, फिर शांति आई, घनी शांति आई, फिर क्रोध आया, फिर शांति आई, तो यह ठीक वैसे ही हो गया कि मैं एक कमरे में बैठा हूं-सुबह हुई, सूरज निकला, किरणों ने मुझे घेर लिया, फिर सांझ होने लगी, ढल गया सूरज, रात हो गई, अंधेरे ने मुझे घेर लिया। क्या मैं कहूं कि मैं अंधेरा हूं या मैं कहूं कि मैं प्रकाश हूं? मैं कहूंगा, मैं दोनों को देखने वाला हूं। मैंने दोनों अनुभव किए; मैंने दोनों जाने। मैं दोनों का साक्षी हूं। सुबह भी आती है, सुबह चली जाती है। सांझ भी आती है, सांझ भी चली जाती है। समता का अर्थ शांति नहीं है। समता का अर्थ शांति और अशांति के भीतर तीसरे को जान लेना है। जो आदमी कहता है मुझे शांति चाहिए, वह समता को उपलब्ध नहीं हो सकता। क्योंकि शांति चाहिए का मतलब है, फिर अशांति का क्या होगा? आपको शांति चाहिए, अशांति का क्या होगा? आपको दिन चाहिए, रात का क्या होगा? आपको सूर्योदय चाहिए, सूर्यास्त का क्या होगा? जिसको सूर्योदय चाहिए, उसे सूर्यास्त भी झेलना पड़ेगा। और जिसको शांति चाहिए, उसको अशांति से गुजरना ही पड़ेगा। जिसको जन्म चाहिए, उसे मृत्यु को स्वीकार करना पड़ेगा। लेकिन हम कहते हैं कि नहीं, जन्म तो चाहिए, मृत्यु नहीं चाहिए। सुबह चाहिए, सांझ नहीं चाहिए। जवानी चाहिए, बुढ़ापा नहीं चाहिए। हम कुछ काट कर चाहते हैं। वह नहीं हो सकता। वह अस्तित्व का नियम नहीं है। तो फिर हम समता को कभी उपलब्ध नहीं होंगे। _ शांति तो सभी चाहते हैं। जितने जोर से चाहते हैं, उतनी अशांति सिर पर टूट जाती है। और जो आदमी कहता है कि मुझे सुबह चाहिए, सांझ नहीं चाहिए; वह सुबह से ही चिंतित हो जाता है कि सांझ आ रही है, सांझ आ रही है; 253
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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