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ताओ उपनिषद भाग २
पर उनको प्रसन्नता हुई होगी; प्रसन्नता-ये सब के वक्तव्य कि बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि सच में कोई बहुत अच्छा काम...। इतनी उपेक्षा है कि होगा बाइबिल में कुछ, होगा गीता में कुछ; किसको प्रयोजन है? किसको लेना-देना है?
दोनों सही हैं-विधायक और निषेधात्मक वक्तव्य-लेकिन उनके लिए ही, जो पहुंच गए हों। आपके लिए, मैं कृष्ण पर भी बात करता हूं। अगर आपको विधायक ठीक लगता हो, विधायक को पकड़ कर चल पड़ें। लाओत्से की बात जान कर कर रहा हूं; क्योंकि निषेध का इतना सुंदर वक्तव्य जगत में दूसरा नहीं है। लाओत्से शिखर है निषेध के वक्तव्य में। तो जिनके मन में भी निषेध के प्रति आकर्षण हो, वे उस मार्ग पर चल पड़ें। वक्तव्य सही क्या है, इसकी चिंता न करें। क्या आपको सही लगता है जिससे आप चल सकें, वही प्राथमिक मूल्य की बात है। "
चाँथा प्रश्न : कल के अंतिम सूत्र में कहा गया है कि जो व्यक्ति प्रत्येक सक्रियता के बाद सहज ही घटित होने वाले विश्राम के राज को जान लेता है, वह अपनी समता को सतत बनाए रख सकता है।
फिर आपने कहा कि सघन सक्रियता के बाद गहन विश्रांति उपलब्ध होती हैं। लेकिन अनुभव ऐसा है हमारा कि सघन सक्रियता के बाद उपलब्ध होने वाली समता अस्थायी होती है, जो मिल कर पुनः-पुनः बिनवर जाती हैं।
कृपया बताएं कि व्यक्ति स्थायी समता को कँसे उपलब्ध हो सकता है।
हमारे चित्त की दो अवस्थाएं हैं: अशांति और शांति। जब भी हम सक्रिय होते हैं, तो चित्त अशांत होगा। क्रिया पैदा होगी, तनाव पैदा होगा, विचार जगेंगे। काम भीतर भी शुरू होगा, जब बाहर शुरू होगा। जितना बड़ा काम बाहर होगा, उतना ही बड़ा काम, अनुपात में, भीतर भी होगा। वही अशांति है। फिर काम विसर्जित हो जाएगा। अगर काम में, लाओत्से कहता है, समग्रता से प्रवेश किया, तो जैसे ही काम समाप्त होगा, वैसे ही भीतर का काम भी समाप्त हो जाएगा। और शांति उपलब्ध होगी।
हमारी अवस्था ऐसी है कि हम न कभी ठीक से अशांत होते और न कभी ठीक से शांत। और जिसे ठीक से शांत होना है, अगर वह ठीक से अशांत ही न हुआ हो, तो बड़ा मुश्किल है। हमारी अशांति भी पूरी नहीं है। इसलिए जब अशांति का काम भी चला जाता है, तो जो बच गई अशांति है, वह भीतर सरकती रहती है, सस्पेंडेड हो जाती है।
समझ लें कि मैंने आप पर क्रोध किया। तो मैं क्रोध कभी पूरा नहीं करूंगा, दबा लूंगा कुछ। क्रोध भी करूंगा और पूरा भी नहीं करूंगा। आप भी चले गए, बात भी समाप्त हो गई। जो भीतर अटका रह गया क्रोध, अब चलेगा। अगर मैं पूरा क्रोध कर लूं, तो घटना के साथ ही भीतर भी क्रोध समाप्त हो जाएगा।
जॉर्ज गुरजिएफ अपने शिष्यों को क्रोध करना सिखाता था। इस सदी में अकेला शिक्षक था-समझदार। नासमझ शिक्षकों की तो कोई कमी नहीं है, जो समझा रहे हैं कि क्रोध न करना, यह न करना, वह न करना। वे पिटी हुई बातें दोहरा रहे हैं, जिनका उन्हें भी पता नहीं है कि वे क्या कह रहे हैं। गुरजिएफ कहता था-अगर कोई क्रोधी आता, तो वह कहता–कि अब तुम पहले ठीक से क्रोध करना सीखो। सुनने वाला भी मुश्किल में पड़ जाता। वह कहता, मैं क्रोध छोड़ने आया हूं आपके पास। क्या कहते हैं, ठीक से क्रोध! मुझसे ठीक से और कौन क्रोध करेगा? उसी में मैं जल रहा हूं।
तो गुरजिएफ कहता, अगर ठीक से क्रोध किया होता, तो उतनी जलन को तुम सह न पाते, बाहर निकल गए होते। जब घर में आग लगती है, तो आदमी कूद कर बाहर निकल जाता है। वह यह भी नहीं पूछता कि रास्ता कहां है? कौन गुरु से रास्ता पूछू? किसको मानूं? और फिर कोई रास्ता भी बता दे, तो वह बैठ कर विचार नहीं करता कि
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