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ताओ उपनिषद भाग २
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तो मैं आपसे कहता हूं, आप दोनों की चिंता छोड़ दें। आपको जो दो में से ठीक लगता हो, उसके पीछे चुपचाप चल पड़ें, दूसरे की फिक्र छोड़ दें। जिस दिन आप मंजिल पर पहुंचेंगे, उस दिन आपको दोनों ठीक मालूम पड़ेंगे। लेकिन जब तक मंजिल पर नहीं पहुंचे हैं, तब तक जो आपके लिए रुचिकर लगता हो, आपके व्यक्तित्व के अनुकूल लगता हो, उसके साथ चल पड़ें। और कभी भूल कर यह कोशिश मत करें कि जो आपको ठीक लगता हो, वह दूसरे को भी ठीक लगे। इसकी बहुत चेष्टा में मत पड़ें। क्योंकि हो सकता है, दूसरे के व्यक्तित्व के वह अनुकूल न हो । और आप उसकी हत्या के जिम्मेवार हो जाएं।
हम सब एक-दूसरे की हत्या के लिए जिम्मेवार हैं। एक आदमी नाच रहा है, कीर्तन कर रहा है। दूसरा आदमी कहता है, क्या मूढ़ता कर रहे हो ? कुछ तो बुद्धि से काम लो ! वह असल में यह कह रहा है कि अगर मैं नाचूं, तो वह मूढ़ता का काम होगा। वह यह कह रहा है कि अगर मैं नाचूं, तो वह बुद्धिहीनता होगी। लेकिन वह सीमा से बाहर जा रहा है। वह दूसरे व्यक्ति से कह रहा है कि क्या मूढ़ता कर रहे हो ? वह अपने को मापदंड बनाए ले रहा है। वह अपने को मापदंड बनाए ले रहा है।
दुनिया में कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे के लिए मापदंड नहीं है। और जो व्यक्ति सोचता है कि मैं दूसरे के लिए मापदंड हूं, वह बहुत गहन हिंसा का जिम्मेवार है, अपराधी है। हो सकता है, जो मुझे मूढ़ता मालूम पड़ती हो, वह दूसरे के लिए परम आनंद हो। और जो मुझे परम ज्ञान मालूम पड़ता है, दूसरे के लिए मूढ़ता दिखाई पड़ती हो । लेकिन दूसरा विचारणीय नहीं है, सदा मैं ही विचारणीय हूं अपने लिए। मेरे लिए जो आनंद है, वह सारे जगत के लिए भी मूढ़ता हो, तो भी मुझे अपने ही आनंद की तलाश करनी चाहिए।
इसलिए कृष्ण ने कहा है कि स्वयं का धर्म, स्वधर्म ही श्रेयस्कर है। और दूसरे के धर्म से भयभीत होना चाहिए। वह पराए का जो धर्म है, वह भय का कारण है।
लेकिन हमें कोई चिंता नहीं है। हम सब अपना धर्म दूसरे पर थोपने की चेष्टा में संलग्न होते हैं।
लाओत्से उनके लिए समझ में पड़ जाएगा, जो निषेध की रुचि रखते हैं, जो नकार की भाषा में आनंद लेते हैं। लाओत्से उनकी समझ में नहीं पड़ेगा, जो विधायक भाषा में आनंद लेते हैं। पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। आप कहां से चलते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। आप अंततः वहां पहुंच जाएं, जिसकी लाओत्से और कृष्ण दोनों ही चर्चा करते हैं। जिस दिन आप पहुंच जाते हैं, उस दिन सभी रास्ते वहीं आते हुए मालूम पड़ते हैं। जब तक आप नहीं पहुंचते, तब तक आपको एक रास्ता चुन लेना जरूरी है।
एक और खतरा होता है। कुछ लोग हैं, जो बहुत बुद्धिमान हो जाते हैं। बहुत बुद्धिमान का मतलब यह कि वे कहते हैं कि दोनों ठीक हैं। वे कभी चल ही नहीं पाते। क्योंकि दो रास्तों पर दुनिया में कोई भी नहीं चल सकता । चलना तो एक ही रास्ते पर पड़ता है।
इस सदी में ऐसे बुद्धिमानों की संख्या बड़े पैमाने पर बढ़ गई है जो कहते हैं, ईसाइयत भी ठीक, हिंदू भी ठीक, मुसलमान भी ठीक, कुरान भी ठीक, बाइबिल भी ठीक, गीता भी ठीक, सब ठीक हैं। अल्ला ईश्वर तेरे नाम, सब ठीक हैं। ये वे लोग हैं, जो चल ही नहीं पाते। ये वे लोग हैं, जो चल ही नहीं पाते। क्योंकि सब रास्ते ठीक हैं, तो पैर उठते ही नहीं। और एक रास्ते पर चलो, तो लगता है कि दूसरा ठीक है, थोड़ा उस पर चलो। दूसरे पर चलो दो कदम कि तीसरा बुलाता है कि ठीक तो मैं भी हूं, थोड़ा मुझ पर चलो। चलने वाले के लिए सदा एक ही रास्ता ठीक है; सोचने वाले के लिए सब रास्ते ठीक हो सकते हैं। चलने वाले के लिए सदा एक ही रास्ता ठीक है।
हां, पहुंचने वाले को भी सब रास्ते ठीक हो जाते हैं। लेकिन जब तक आप पहुंच नहीं गए हैं, तब तक पहुंचने वाले की भाषा बोलना ही मत। वह मंहगा काम है। खड़े हैं दरवाजे पर और महल के भीतर की भाषा अगर आपकी