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तटस्थ प्रतीक्षा, अस्मिता-विमर्जन व अनेकता में एकता
सारा व्यक्तित्व मुखर है। इन्होंने कभी रुक कर नहीं सोचा कि कहें तो भूल हो जाएगी। इन्हें पता ही नहीं चला कि कब कहना शुरू हो गया है।
यह व्यक्तित्व पर निर्भर है। इनकी भाषा पाजिटिव होगी। मीरा जब बोलेगी, तो वह परमात्मा में यह नहीं कहेगी कि वह क्या नहीं है, वह कहेगी कि वह क्या है। सारे भक्त विधायक भाषा का उपयोग करेंगेः परमात्मा क्या है। इसलिए भक्तों का परमात्मा निर्गुण नहीं बन पाएगा, सगुण! क्योंकि विधायकता का अर्थ है-सगुण, साकार। समस्त ज्ञानी निषेध का उपयोग करेंगे। इसलिए उनका परमात्मा शून्य रह जाएगा-निराकार। उसमें कोई गुण नहीं होंगे। वे इनकार करेंगे: यह नहीं, यह नहीं। भक्त कहेंगेः यह, यह।
ये दोनों ही सही हैं और दोनों ही गलत हैं, क्योंकि दोनों अधूरे हैं। और पूरा अभिव्यक्ति में होने का कोई उपाय नहीं है। अभिव्यक्ति अधूरी होगी ही। जैसे ही शब्द का उपयोग किया, शब्द आधा कहेगा, आधा छूट जाएगा। क्योंकि विपरीत शब्दों को एक साथ कहने का कोई अर्थ नहीं है। ऐसा भी प्रयास हुआ। उपनिषदों ने कहा है, वह दूर से दूर और पास से पास। अब भाषा में यह कहना...।
पश्चिम में नया स्कूल है दार्शनिकों काः पाजिटिव एनालिस्ट्सि, विधायक विश्लेषक। तर्कशास्त्रियों का वर्ग है। वे इस वक्तव्य को कहेंगे नानसेंस; यह वक्तव्य जो है, अर्थहीन है। क्योंकि जब तुम कहते हो दूर से दूर, तो रुको, फिर तत्काल मत कहो कि पास से पास। क्योंकि दोनों एक-दूसरे को काट कर व्यर्थ कर देते हैं।
अगर लाओत्से का वचन सुनें ये पश्चिम के विचारक कि निराकार ही उसका आकार है, तो वे कहेंगे एब्सर्ड। फिर भाषा का कोई मतलब ही नहीं रहा। आकार का मतलब आकार होता है, निराकार का मतलब निराकार होता है।
और आप कहते हैं, निराकार ही उसका आकार है। तो फिर कहिए ही मत। जैसे हम कहें कि मरा होना ही उनका जीवन है। कोई अर्थ न हुआ। कि कुरूप होना ही उनका सौंदर्य है; कि अंधा होना ही उनकी आंखें हैं। तो फिर भाषा का उपयोग मत करिए। भाषा पर कृपा करिए। क्योंकि आंखों का मतलब आंखें रहने दीजिए और अंधेपन का मतलब अंधापन। अगर आंख का मतलब अंधापन और अंधेपन का मतलब आंख है, तो फिर बोलिए ही मत।
इस स्कूल के बहुत बड़े विचारक लुडविग विटगिंस्टीन ने कहा है, दैट व्हिच कैन नाट बी सेड, मस्ट नॉट बी सेड। अगर नहीं कह सकते हैं, तो चुप रहिए। जो नहीं कहा जा सकता, उसको कहिए ही मत। लेकिन इस तरह तो मत कहिए कि भाषा ही सब अस्तव्यस्त हो जाए।
तो तीन ही उपाय हैं अब तक। एक, विधायक भाषा का उपयोग करो। विधायक भाषा के खतरे हैं। सीमा बनेगी, परिभाषा बनेगी और विराट संकीर्ण-हो जाएगा। दूसरा, निषेध भाषा का उपयोग करो। सीमा नहीं बनेगी, आकार नहीं बनेगा, विराट सीमित नहीं होगा; लेकिन विराट समझ के पार हो जाएगा, बेबूझ हो जाएगा। तीसरा उपाय है, दोनों का एक साथ प्रयोग करो। कहो कि वह है भी और नहीं भी; कहो कि वह बड़ा भी है और छोटा भी। दोनों का एक साथ प्रयोग करो। तब भाषा पहेली हो जाएगी, अभिव्यक्ति नहीं। फिर क्या करो?
चौथा विकल्प है, चुप रह जाओ। उससे भी कुछ हल नहीं होता। जरूरी बुराई है भाषा। और उसमें चुनाव करना होता है। और चुनाव पसंदगी की बात है। लाओत्से की पसंदगी निषेध की है। मंसूर की, जीसस की पसंदगी विधेय की है। कोई नहीं कह सकता कि दोनों में कौन ठीक है। जीसस के लिए जीसस का वक्तव्य ठीक है: लाओत्से के लिए लाओत्से का वक्तव्य ठीक है। यह उनके देखने के ढंग पर निर्भर करता है।
और हमारी यह तकलीफ है कि हम सदा इस कोशिश में रहते हैं कि उन सबके वक्तव्य एक से होने चाहिए, तो ही ठीक होंगे। हमारी तकलीफ है। हमारी तकलीफ यह है कि या तो लाओत्से ठीक है या जीसस ठीक हैं, या तो बुद्ध ठीक हैं या कृष्ण ठीक हैं। दोनों ठीक नहीं हो सकते।
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